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________________ राकरएजुश्रावकाचार एक मात्मयत दूदार अनातन । जनशके विना किसीभी वस्तुका सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। यह बात आगे चलकर स्पष्ट की जायगी, अतएव यहां अधिक लिखनकी आवश्यकता नहीं है। किंतु इतनी बात जरूर समझलेनी चाहिये कि लक्षणके मुख्यतया तीन दोष बतलाये हैं--प्रव्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभवः । इनमेंसे एकभी दोपसे यदि लक्षण युक्त है तो वह अपने लक्ष्यका ठीक २ परिज्ञान नहीं करा सकता । क्योंकि इस तरहके सदोष लक्षणके द्वारा जो वस्तुमा ज्ञान होता है या होगा वह सम्यक नहीं हो सकता। ऊपरकी कारिकामें धमका जो स्वरूप बताया उसीमें उसके तीन प्रकार या मेद कहे है--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पक्चारित्र । तीनोंको धर्म शब्दसे कहा है । अतएव मिले हुए तीनोंमें में क्रमानुसार एकर का पृथकर स्वरूप बताना जरुती है। उसका ठीक २ परिज्ञान जैसा कि ऊपर फहागमा है निर्दोष लक्षणके द्वाराही हो सकता है। इसीलिये इस कारिकाका निर्माण हुआ है। मतलव यह है कि यह कारिका सम्यग्दर्शन के स्वरूपका समीचीन परिज्ञान करानेवाला लक्षण वास्य है। इसके द्वारा सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रसे पृथक सम्यग्दर्शनके स्वरपका ठीकर बोध कराया गया है यही इस कारिकाका प्रयोजन है। शंका--भागममें सम्यग्दर्शनके अनेक लक्षण बताये हैं। जैसा कि ऊपर आपने कहा ही है ! यहां जा लक्षण है वह भी उनमेंसे एक प्रकारका है अतः सम्यग्दर्शनका वह ऐसा यामात्य लपराड किस तरह माना जा सकता है कि जिसमें अन्य सब लक्षणों का भी समावेश हो सके ? और यदि यह बात नहीं है तो इस लनणको अांशिक ही क्यों न माना जाय ? अर्थात् इसे सभ्य दर्शनका सामान्य लक्षण न मानकर उसके अनेक भेदोंमेंसे एक भेदको दृष्टिमें रखकर-- सम्यग्दर्शनके अनेक भेदोंके कारणभून अंशोम से एक अंशको लेकर कहागया क्यों न माना जाय ? या फिर इसे अधाप्ति दीपसे युक्त क्यों न कहा जाय। उत्तर-यह न तो अध्याप्त लक्षण ही है और न अांशिक ही है। क्योंकि इसमें जिन शब्दोंका एवं विशेषणोंका प्रयोग किया है वे इन दोनों ही दोपोंको धारण करने में समर्थ है। श्रद्धान शब्द की सामनभेदोंके अनुसार मिबार प्रकार की निरुक्ति करनेपर प्रायः सभी लक्षणोंका समावेश हो जाता है। दसरी बात यह है कि "श्रद्धान" क्रियाके कर्म और उसके विशेषणका प्रयोग एवं तीनों क्रियाविशेषणोंका उल्लेख भी निरर्थक नहीं हैं। इससे भी अनेक लक्षणोंका समावेश होजाता है। अतः यह लदाण आंशिक या अव्याप्त नहीं है । साथही विशेषणोंका फल इतर व्याधि हुमा करता है। इसलिये यहां अतिम्याप्ति दोषकी भी संभावना नहीं रहती। क्योंकि उन विशेषणोंके विना जिन अलस्योंपे लक्षणके जानेकी संभावना थी उन सबका कारण भी कर दिया गया है । असंभव दोषकी तो कल्पना भी नहीं होसकती। अतएव यह लक्षण पूर्ण निर्दोष हैं। इसके कहे बिना -लक्ष्यवस्तुका ही जो स्वरूप हो वह आत्मभून और उससे जो भिन्न हो वह अनात्मभूत लक्षण समझना चाहिये।....शानाभ्यायौ । ६....सॅशय विपर्षय और अनभ्यवसाप । इस तरह असंभव दोष तीन तरस होना।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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