________________
बौद्रका टीका तीसरा श्लोक किन्तु बाह्यदृष्टिसे विचार करने पर उक्तप्रकारके मुनियोंका चारित्र मिथ्या नहीं कहा जा सकता अंतरंग भाव प्रत्यक्षज्ञान के विषय है और बाह्य चारित्र व्यवहारका विषय है। सर्व साधारण में जिसका आचरण जैनागम के प्रतिकूल नहीं अपितु अनुकूल ही दृष्टि गोचर होता है और जो भाव लिगियोंक ही समान है उसका व्यवहार भी समीचीन रूपमें ही हो सकता है नकि मिथ्या रूप में इसदृष्टि से उसे समीचीन ही कहना या मानना तथा उसका यथायोग्य सम्मान आदि करना उचित है इसके विरुद्ध द्रव्य रूपमें जो मिथ्या चारित्र है यह अंतरंग से सो मिथ्या है ही साथ ही बाह्यरूपसे - ४यवहारसे भी मिथ्या ही है। अत एव दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। __ शंका---ठीक है; मतलब यह कि द्रव्यलिंगी मुनिका आचरण केवल अंतरंगमें मिथ्यात्व कर्म का उदय रहने के कारण ही मिथ्या कहा जाता है बाहरसे उसका आचरण भावलिंगीके ही समान और जिनोक्त मागके अनुसार रहनेके कारस समीचीन ही माना जाता है। परन्तु ऊपर आपने कहा है कि जहां सम्पग्दर्शन होगा वहाँ ज्ञान और चारित्र भी समीचीन होजाते हैं। सो यह कायम को आम विरद्ध बाजुभ होता है । क्योंकि श्री तत्वार्थ वार्तिकजी १ में सम्यग्दर्शनके प्रति सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञानके प्रति सम्पचारित्र भजनीय कहा है अर्थात् होय मी और कदाचित् न भी होय | सो इसका क्या समाधान है ?
उत्तर-श्रीतत्त्वार्थदार्तिक जी में जहां यह बात कही है वहीं इसका प्राशय भी स्पष्ट कर दिया है । कहा है कि यह कथन नयापेक्षर है। अर्थात् शन्दनयके अनुसार सम्यग्दर्शन झान चारित्र शब्द परिपूर्ण विषयको ग्रहण करते हैं। मतलब यह है कि ज्ञान शब्दसे जब श्रुतकेवल या प्रत्यक्ष केवल झान विवक्षित हो तो यह भजनीय है । इसीतरह चारित्रशब्दसे एकदेश अथवा पूर्ख पथाल्यात चारित्र विवक्षित है सो वह भी अवश्यही भजनीय है । क्षायिक सम्यग्दर्शनके होनेपर पूर्ण श्रुतकेवल या दायिक केवलज्ञान भी उसी समय होजाय या नियमसे उसके साथ गया जाय यह नियम नहीं है। इसीतरह जहाँ श्रुतकैवज्ञज्ञान हो वहां पूर्ण यथाख्यात चारित्र, अथवा जझार सम्यग्दर्शन है वहार देशसंयम या पूर्णसंयम अथवा यथाख्यात चारित्र भी हो ही यह नियम नहीं है। इस दृष्टि से भजनीय कहा है। नकि सम्यव्यपदेशकी अपेक्षा । वास्तव में जिप्ससमय सम्यग्दः र्शन प्रकट होता है उसी समय ज्ञान भी जो जैसा और जितने प्रमाणमें भी हो वह अवश्य ही सम्यव्यपदेशको प्राप्त करलेता है । इसी तरह चारित्रके विषय में भी यथायोग्य भागनानुसार समझलेना चाहिये।
अवशन्द भूधातुसे बनता है परन्तु इसका अर्थ सत्ता जन्म उत्सति शिव आदि हुआ करता है। अरिहतका भी वाचक है। निरुक्तिके अनुसार केवल "होना" ऐसा अर्थ होता है अबए। जो होता रहता है, एक अवस्था--गति प्रादिमें परिणत होकर फिर से अन्य अवस्थामोंमें जी
१-तस्वार्थराजबार्तिक मसूरचार्तिकर,७०ः। यथा-एषांपूर्वस्य लाभे भजनीयमुतरम् उत्तरलातु निपतः पूर्णलामः । २-भवा पावति मानमित्येतत्परिलमायने नातो ऽभवाम्नवापेवचनम् II