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________________ KAALA रत्नकरण्डनावकाचार छिप नहीं सकता। इस तरह के कथनसे जहां आप्तका वास्तविक स्वरूप सदोष ठहरता है वहीं उस वखनके अवर्णवादरूप होनेके कारण कथन करनेवालोंके मिथ्यात्वका बंध होता है। उसके मानने पाले भी सन्मार्गसे पश्नित होना है। इसके सिवाय इन दोषोंको न माननेवाला भी समाज नाम सारश्यके कारण अपरादका विषय बन जाता है। ये सब ऐसे रिपय है कि जिनपर निष्पक्ष विचारशीलताके होनेपर ही दृष्टि जा सकती है । प्रकीयते-इसका अर्थ प्रकर्पतया कीर्तन होता है । मतलब यह है कि इन दोगोंसे जो रहित हैं यास्तवमें वहीं प्राप्त-योमागका उपज्ञ वत्ता माना जा सकता है। विचारशील निष्पक्ष विद्वानोंकी दृष्टि में उसकी प्राप्तता प्रशंसनीय एवं सम्मान्य हो सकती है। क्योंकि यही युक्ति अनुभव तथा आगमी अविरुद्ध प्रमाणयुक्त ठहाती है । न कि अन्य अथवा अन्य तात्पर्य यह है कि इस कारिकामें जिन अठारह दोपोंका ऊल्लेख किया है उनसे रहित होनेपर ही वास्तव में प्राप्तकी आप्तता मानी जा सकती है । जो इनर राहत नहीं है वह यदि अन्य दोषों से रहित कहा भी डायनी भी वास्तवम प्राप्त नहीं ठहर सकता। क्योंकि इन दोषोंका सम्बन्ध पाटाही कमी है। इनमें कुछ पाकनिमिसक है घोर कुछ अपातिक सिमरीका जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है । अतएव यदि इनसे रहिन नहीं माना जाता है तो निश्चित है कि अन्य संमारी जीवोंक ही समान वह भी उन कमा के फलका भोगनवाला है। और इसीलिय या मोक्षमार्गका नेता-शासक-प्रदर्शक नहीं बन सकना । नेता वही हो सका है जो स्वयं उस मार्गपर चलकर मागको यथार्थता बतानकोलये कृतिपूर्वक योग्यता प्राप्त करचुका है । क्योंकि एमा ही नेता अपने अनुयायियोंकी वारविक सागसे अभीष्ट स्थानतक लेजा सकता है अथवा मार्गकी यथार्थता बता सकता है । कोई शासक यदि शास्यांके ही समान है तो वह भी अपने विपयका वास्तव में शासन नहीं कर सकता । जिसने स्वयं मार्गको नही देखा है वह अन्य अनुयायियोंलिये उसका प्रदर्शक तो हो ही किस तरह सकता है? जिस किसी भी व्यक्तिमें प्राप्तताका निदर्शन करना है उसमें सबसे पहिल निदोपताका सद्भाव दिखाना जरूरी है । जिस तरह मलिन बस्त्रपर ठीक२ रंग नहीं चढ़ सकता उसी तरह समस्त कमौके उदयन्त दोषांस मलिन मारनामें प्राप्तताका वास्तविक रंग नहीं आ सकता है। वेदनीय कर्म यथायोग्य कफि उदयसे उत्पन्न अवस्थाका बेदन कराता है। जहांपर जिस कर्मका उदय नहीं अथवा सच भी नहीं है वापर तज्जस्ति अवस्थाका यह वेदन किस तरह करा सकता है ? "भूलं नास्ति कुनः शाखा" । भोजन पानमें प्रवृत्ति संचलन कपायके तीवउदय या उदीरणा तक ही होसकती है। ऐसी
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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