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________________ बौद्रिका टीका छठा श्लोक यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं कि ये दोष किसी न किसी कारणजन्यही हो सकते हैं। बिना किसी योग्य कारणके शुद्ध परमात्मामें यदि माने जाते हैं तो उनकी सत्यता या प्रमाणता को कोईभी यौक्तिक विद्वान स्वीकार नहीं कर सकता । कारण कि कल्पनाभी कहतिक विचारोंकी कसौटीपर खरी उतरती है; यह भी एक बहुत बडा विचारणीय विषय है। और युक्ति वही मान्य हो सकती है जो कि अनुभव की तराजूमें तुल ज्ञाती है। ईश्वरका अवतार माननेवाले को जहां जन्ममरण मानने पड़ते हैं वहीं दूसरे बाह्य दीप तुपा पिपासा जरा आतंक भी मानने ही पड़ेंगे । क्यों कि वे सभी आपसमें सम्बन्धित विषय है। साथ ही अवतार जन्म धारण करने के हेतुका विचार करनेपर असुरों, दस्यों आदिके संहारादिकी चिंता आश्चर्य आदि अन्तरंग दोषाका सम्बन्ध भी आकर उपस्थित हो ही जाता है। इन दोषों से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता और ऐसी हालत में उसे वास्तव में मुक्त हो कौन कहेगा फलतः इन दोषोंसे सकल परमात्मा को भी रहित मानने के लिए स्याद्वाद सिद्धांत तथा कर्म सिद्धांत को उसी रूपमं मानना उचित है जैसा कि श्री वर्धमान भगवानके उपदेशकी परम्परा में अबतक मान्य चला रहा है । इसके विनाकोई भी तत्व सम्यक् प्रमागिन नहीं हो सकता। इसके सिवाय जिन्होंने अवतारवाद नहीं माना है; और जो श्रीवर्धमान भगानका अपनेको अनुयायी भी कहते हैं, अतएव जो जगतम जैननामसे प्रसिद्ध भी हैं उन्होंनयद्यपि आयुनिमित्तक जन्म भरण दोषोंको नहीं माना है फिर भी वेदनीय नामकर्म और गोत्र कर्म यहा मोहनिमित्तक अनेक दीपोंको जीवन्मक्त अवस्था में किसी न किसी रूपमें माना है। उनका कथन भी ताश्विक नहीं है श्रपथमें लेजानेवाला ही है। यह ठीक है कि वे भी अरिहंतकी अष्टादश दापसि रहित भानते हैं परन्तु वैसा मानकर भी जो भिन्न प्रकारसे ही उन अटारह दोपोंकी कल्पना करते हैं वह युक्ति आगम और अनुभव तीनों ही तरस विरुद्ध अयुक्त, निराधार एवं कल्पनामात्र ही ठहरती है। मोहोदयके निमित्त विना बेदनीय अपना फल नहीं द सकता इस सयुक्तिका खण्डन या मिराकरण करनेमें वे सर्वथा असमर्थ हैं मुक्ति क्रिया प्रवृत्ति मान लनपर बागमोक्त प्रातराय प्रायश्चित्त आदि दोषोंकी आपसिका भी वे समाधान नहीं कर सकते । बुवाधाकै सिवाय रोगकी भी जो कि नामकर्मनिमितक है,तथा उसग और मरणभरकी भी वे स्वीकार करते हैं. इतना ही नहीं, इनके फलस्वरूप मांसभक्षण जैसे अवध कममें प्रवृश्चिक बतानेवाले बागमको भी वे निषि सत्य श्रेयस्कर मानते हैं । अतएव इस तरहकी मान्यता और प्रतिपादनकी प्रामाणिकताको भला कौन अनुभवी स्वीकार कर सकेगा । फिर उपसगक निमिससे होनेवाले भयंकर रोगके शमनार्थ मौतमलपकी प्रतिमें जो मरणभप दिखाई पड़ता है उस पर कितने ही पर्दे डाले जांय १-सष्टि कर्तुत्व एवं दुष्टोंके निप्रह और शिष्टों के अनुग्रह तथा 'धर्म संस्थापनार्थ ईश्वरके अवतार वाद थादि के विषय में दी जानेवाली युछियोंके खण्डन में देखो प्रमेय कमलमातंडाद न्यायमंय तथा धादिपुराण पशस्तिलक आदि ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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