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________________ रत्नकरण्डीवकाचार का पातक घातिकोयर जैसा सीधा और तत्काल प्रभाव पड़ता है वैसा अघाति कर्मोपर नहीं। अधाति कर्मोंका मुखिया प्रायुकर्म है । जबतक आयुकर्म विधमान है-उसका निःशेष प्रभाव नहीं हो जाता तबतक धाति कर्मों का भी प्रलय नहीं हो सकता | जिस तरह युद्ध भूमि में शत्रुके आघात से बड और शिरके पृथकर हो जाने परमी केवल धड-रुण्ड भी कुछ काल तक लडना रहता है । उसी प्रकार यद्यपि घाति कमाके नष्ट हो जाने से कार्मणशरीर के धड़ और शिर पृथकर हो चुके हैं फिर भी रुएड के समान ये अघाति कर्म आयुकर्म की स्थिति पर्यत अपना अस्तित्व किसी तरह बनाये रखते हैं । श्रायुके अभाव के साथ ही इनका भी अभाव हो जाया करता है । इस व्यवस्थासे आयुकर्मका अधाति कर्मों के ऊपर जो प्रभाव है तथा मोहकी उसे जसी कुछ नाधीनता प्राप्त है यह सब स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि मोह या घातिकोका क्षय हो जाने पर एक निश्चित समयतक स्थिर रहकर भी अन्तमें स्वयं निःसंतान ही क्षय को प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। प्रश्न--मोहकर्म का सीधा सम्बन्ध जिनके साथ आपने बताया उनके निमिस से होनेवाले दापोंको 'च' शन्दसे सूचित किया और जिनके साथ आयकर्मका साक्षात् एवं मोहका परम्परा सम्बन्ध आपने बताया उन अघाति कर्म निमिचिक बार दोपोंको सबसे प्रथम नाम लेकर गिनाया, इसका कारण ! उचर-कारण ऊपरके कथनसही मालूमहो सकता किंतु इसका कारण है यहभी है कि अपाति निमित्तक पाठ दोपोंके विषय में जैसाकुछ विसम्बाद आजकल पाया जाता है वैसा पातिनिभिसक दोपोंक विषयमं नहीं। अतएव मन्य श्रोता मिथ्या--असंगत -तत्त्वक विषयका उपदेश सुनकर श्रद्धाविहीन न हो जाय अथवा सिध्यादृष्टि न बनजांय तथा वास्तविक आत्मकल्याणसे वंचित झेकर अनन्त सांसारिक दुःखांका पात्र न बन जाय इसलिये परम अनुकम्पाजन्य हितबुद्धि तथा सदभावनास श्राचार्थन सिम्बादसे सम्बन्धित माठ दोपों का नाम स्पष्ट रूपसे नाम लेकर गिना दिया है। जिससे ओता इस बातपर विचार कर सकता है कि सर्वसाधारण संसारी जीव जिन दोपोंसे ग्रस्त हैं उन्ही दोषांसे यदि प्राप्त भी युक्त है तो दोनोंकही समान हो जानपर एक को मोक्षमार्गका नंता या शासक माना जाय और दूसरों को नेय या शास्य; यह किस तरह वन सकता या यक्तियुक्त माना जा सकता है। नेतृत्व के लिए शास्य संसारी जीवमात्रमें पायेजाने पाते दोषास रहित होना अत्याश्यक ही नहीं परमावश्यक है। देखा जाता है कि आजकल जगत्में जितने मत प्रचलित हैं उनमेंसे किसी ने तो परमःमाको मानाही नहीं है । किसी २ ने माना भी है तो उसका उन्होंने जैसा कुछ स्वरूप बताया है उससे उसकी सर्वथा निर्दोषता सिद्ध नहीं होती । यद्यपि वे उसकी निर्दोषता सिद्ध करने के लिए अनेक युक्ति प्रयुक्ति भी करते हैं परन्तु तच्च विचारकों की दृष्टि में वे सच युक्त्याभास ही प्रमाणित होती है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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