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________________ रत्मकरहईश्रावकाचार AAPravuAAA-- -- - - -- - समझमें नहीं आता कि साताद मिथ्यात्व नामक अनायतनका सेवन करने पर भी सम्यग्दर्शन स्थिर किस तरह रह सकता है । ऐसी अवस्थामें अनायतनसेवाको अतीचार न कह कर अनाचार ही कहना चाहिये उचर-ठीक है। परन्तु अतीचार शब्दका निरुक्त्यर्थ ऐसा है कि किसी भी धर्म या व्रतके भलस्वरूपका अतिक्रमण जिसमें पाया जाय या जिससे होताहो ऐसी कोई भी प्रवृत्ति | तदनुसार इस तरहकी प्रवृति दोनों ही तरहकी हो सकती है प्रथम तो वह जिससे अंशतः अतिक्रमण हो और दूसरा वह जिससे मूलतः अतिक्रमण अर्थात् भंग होता हो । फलतः इस निरुक्ति के अनुसार अनायतन सेवा का अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि जिससे सम्यग्दर्शन का समूल भंग हो जाय । एसी अवस्था में उसको अतीचार न कहकर अनाचार ही कहा जा सकता है। यही कारण है कि मूलाराधनाकी विजयोदया टीका के कर्ता अपराजित मूरिने मिथ्यात्व नामक अनायतन के सेवन करनेवाले को अतिचारवान् न कहकर मिथ्यादृष्टि ही माना है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो मिथ्यात्व नामके अनायतन का सेवन अतीचार या मलदोष रूपमें किसतरह माना जा सकता है ? क्योंकि यदि उसकी अतीचारता संभव ही नहीं हो सकती तो अनायतन के पांच ही भेद मानने पड़ेंगे। उचर-ठीक है। यदि कोई जीव अंतरंग में श्रद्धान तो ठीक ठीक ही रखता है-सम्यग्दृष्टि है। परन्तु किसी कारणाश वह बाहर-द्रव्यरूपमें यदि किसी ऐसे द्रष्यादिका सेवन कर लेता है जिससे कि सम्यक्त्व का निर्मूल भंग हो जाना संभव है तो उस अवस्था में उस मिथ्यात्व के सेवन को अविचार भी कहा जा सकता या माना जा सकता है। क्योंकि वहांपर द्रव्यरूपसे भंग भौर भावरूपसे अभंग पाया जाता है । इसीप्रकार अन्य अनायतनों के सेवन के विषय में भी यथायोग्य पटित कर लेना चाहिये। प्रश्न-आचार्योंने नदी नद समुद्र आदिमें, स्नान करने को लोकमूढता कहा है। परन्तु दि.जैनाचार्यों के अन्थोंमें और उनके कथित विधि विधानों में भी इस तरहके स्नान को उचित बताया है। गंगा सिंधु आदि नदियों के जलसे भगवान का अभिषेक करने का विधान किया १२ बीर समंद्र के जलसे समी तीर्थकरों के जन्म समय अभिषेक की वात तो सर्व प्रसिद्ध है । १-मिथ्यात्वस्य सेवा तत्परिणामयोग्यतव्याशु पयोगः, तां च कुषन् मम्यक्त्वं निमलयिष्यतीति सम्मतो मिथ्याराष्ट्ररेवासी, इति कथं न सम्यक्त्वातचारवान् । अतात्य धरण पतिचार: माहात्म्यापकों शता विनाशो वा प्राविजयाचायेस्तु मध्यात्वसवामतिचारं नेच्छान्त-तथाचमन्यो "मिध्यात्वमश्रद्धानं तत्सेवायो मिध्याष्ट्रिरेषासाविति नातिचारिता" इति मूलाराधना पृ.१४५ । २-पातातगाविससष्ट भूरितोये जलाशये। अवगाहाचरेत्स्नानमतोन्यद् गालितं मजेत् । यश० ज. १०३७२। ३- जसा कि पूजापाठोंमें सर्वत्र प्रसिद्ध है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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