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________________ २०१ A. ---... NPAdivwarerwarn..--- चंद्रिका टीका बाईसा श्लोक प्रश्न-हमको तो अनायतन श्रीर मूढताओंमें कोई अन्तर नहीं मालुम होता । क्योंकि दोनोंहीमें मिथ्यादर्शनादिकका सम्बन्ध पाया जाता है। कहिये इनके पृयक २ वर्णन करने का क्या कारण है ! ____ उसर—दोनों में से एक में भावकी और दूसरेमें द्रव्य की प्रधानता है। जो द्रव्यरूप में मिथ्यादृष्टि नहीं कहा जा सकता परन्तु वही यदि नवतः अथवा अन्तरंग में मिथ्याभावोंने युक्त है तो उसे अनायतन कहा जा सकता है । जैसा कि महापंचित आशाधारजीके निमवाक्योंसे स्पष्ट होता है। अपरैरपि मिथ्यादृष्टिभिः सह संवर्ग प्रतिषेय यति मुद्रा सांव्यवहारिकी विजगतीबन्द्यामपोद्याईतीम्, वामां केचिदईयको व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः। लोकं भृत्वदाविशन्त्यवशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तमशिनधापरिचय देशमोहया 2.-६६ : इस पद्यकी टीकामें स्वयं ग्रन्थकारने, जैसा और जो कुछ लिखा है उससे स्पष्ट होजाता है कि वे धमकाम लोगोंमें भतकी तरह प्रवेश करनेवाले अजितेन्द्रिय द्रव्य जिनलिङ्ग पारियों एवं लोकशास्त्रविरुद्ध आचरण करनेवाले जिनरूपधारक मठपतियोंको अनायतन समझते हैं। और वापसादि द्रव्यमिथ्याशियों की तरह उनके साथ भी मन वरन कायसे परिचय न करने का सम्पष्टियोंको उपदेश देते है। इस पद्यमें प्रयुक्त 'पु'देहमोह" शब्दका आशय रनकररतश्रावकाचारकी अमरष्टि अंमत वर्णन करनेवाली "कापथं पथि दुखानाम्" आदि कारिका नं. १४ से ही है। इससे द्रवरूप में जिनलिङ्गिगोंका भी अनायानत्य सिद्ध है। किन्तु लोकमहतामें अन्तरंगभावारूप मिथ्यात्व के साथ २ बाम द्रव्य प्रवृत्ति भी अज्ञान एवं अविवेक मूलक हुआ करती है । फिर चाहे वह प्रवृत्ति कुश्रुत और कुस्मृतियों के आधार पर हो अथवा निराधार । प्रश्न- अनायतन यह है, तीन मिथ्यात्व आदिक भाव और तीन मिथ्यादृष्टि प्रादिक तद्भाववान् व्यक्ति । प्राचार्योंने इन अनायतनोंको सम्यग्दर्शन के २५ मलदोपामें गिनाया है। इसका आशय हमारी समझसे सो यह है कि इन मलदोषोंके रहते हुए भी सम्पग्दर्शन निर्मूल- भम नहीं होता । वह मलिन अथवा सदोष-दूषित अवश्य होजाता है। किन्तु यह मागममें पार्थस्थादिक पांच प्रकारके भ्रष्टमुनि मानेगये हैं। वे द्रव्यरूपमें जिनलिंगके धारक होते हुए भी चारित्रसे च्युत हुआ करते हैं। उनको संयमियों केलिये अन्य कहा गया है। आशाथरजीका बभि. प्राव ऐसे भ्रष्ट मुनियो से ही है। सामान्यतः द्रव्यलिगी मात्रसे नहीं। मामान्यतः द्रल्यलिंगी, मुनि तो पांच प्रकारके (माहरमें छठे सातवे गुणस्थानके अनुरूप अखण्उ संयमसेयुक्त परन्तु अन्तरंगमें प्रथम पांच गुणवान में से किसीसे युक्त) हुत्रा करते हैं। और वे सभी वन्दनीय तथा पूज्य हैं जो बारिखने और पारसे श्री अट उन्हींका यहां अभिप्राय है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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