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________________ रत्नकर,एईश्रावकाचार भक्त ही हैं। परन्तु वे सिद्धान्ततः और अन्तरङ्गमें तथा वास्तविकरूपमें-मिथ्यात्वका उदय पाये जाने और इसीलिये सम्यक्त्वसहित नहीं रहने के कारमा मुख्यतया जिनेन्द्रभक्त शन्दसे नहीं कहे जा सकते । प्रकृति में उन अनुपचरित सम्यग्दृष्टि जिनेन्द्रमकोंका हौ ग्रहस किया गया है, ऐसा समझना चाहिये। जो कि नियमसे जिनेन्द्र भगवान भक्त होते हैं तथा अन्य किसी देवके वास्तवमें भक्त न होकर जिनेन्द्र भगदानक ही मक्त हुआ करते हैं। बगे--सु-सुष्ठु-सुन्दरम् - मुखरूपम् मा। अर्यते--प्राप्यते इति भर-स्थानं । एतद् स्वर -सुखरूपम् स्थानम् इति यो गीयते स स्वर्गः । म निरुक्ति के अनुसार संसारमें यह सबसे अधिक मुखरूप स्थान है, ऐसा जिसके विषय में माना जाता है उसको स्वर्ग कहते हैं। फिर भी देवगवि अथवा वैमानिक देव पर्यायवाले जीवोंके स्थानके लिये यह शब्द रूढ है। तापर्य---यह कि जगतमें यह बात प्रसिद्ध है कि संसारमें यदि कोई सर्वाधिक सुखका स्थान है तो वह स्वर्ग है । यद्यपि यह ठीक है कि तत्त्वतः दुःख निसको कहते हैं उसकी परिभाषा सं स्वर्ग भी याद नहीं है। सर्गधीरता पुरता संगलेश आदि दुःखरूप भावोंसे वह मी मुक नहीं है। फिर भी कर्मफलको भोगनेवाली चारों गवियोंमें वह इसीलिये प्रधान एवं इष्टरूप माना जाता है कि पुण्यरूप माने गये कौमसे अत्यधिक भेदोका वहाँ उदय पाया जाता है और उनके फल भोगने में बाधक बन सकनेवाले कारणोंका वहां प्रायः सद्भाव नहीं पाया जाता। अतएव पुण्य फल भोगने योग्य स्थानोंमें अधिक होनके कारण ही उसकी वैसी प्रसिद्धि है। पुण्य प्रकृतियां कुल ६८ हैं उनमें से साता देवनीय उच्च गोत्र देव आयु देवगति पन्चे. न्द्रिय जाति वैक्रियिक शरीर अङ्गोपाङ्ग निर्माण पन्धन संषात समचतुरस्त्र संस्थान स्पर्श रस गन्ध वणं शुभ सुभग सुस्वर प्रादेय यशस्कीति आदि बहुतर प्रकृतियोंका उदय यहां पाया जाता है। खास बात यह है कि इन प्रकृतियोंका उदय वहाँपर सामान्यरूपसे सभी देवोंके पाया जाता है। फलतः सभी देव स्वाभाविकरूपसे अनेक गुणोंसे युक्त मति, अष्टविध विक्रिया समर्थ समा शुभ सुभग कान्तियुक्त योग्य साङ्गोपाङ्गादिसे सुन्दर शरीर, अनपवर्य प्रायु, उच्चगोत्र, यथा प्राप्त इष्ट मोगोंके भोका ही हुआ करते हैं। स्वर्गमें मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न होते हैं। अतएव सम्पत्व सहित और मिथ्यात्वसहित जीवोंको स्वर्गमें उत्पन्न होने मात्रसे ही सामान्यतया कोई अन्तर नहीं पड़ता और न कहा जा सकता है। किन्तु यहां पर वो आचार्य सम्यक्सका असा. धारण फल बता रहे हैं । अतएव जिस स्वर्गको साधारण मिध्यादृष्टि जीव भी प्राप्त कर लेता है उसके प्राप्त करने में सम्यक्रवके फलकी कोई असाधारणता प्रकट नहीं होती। इसलिये भाचार्य ने विशेषता दिखानके लिये जो प्रकृत कारिकामें विशेषण दिये हैं उनके माशयपर भागी अनुसार स्वासतौरसे ध्यान देने की आवश्यकता है। अतएव उन्हीं विशेषताओंको संदेपमें यहां पर उछ सष्ट करदेना उचित प्रतीत होता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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