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________________ Arrr-innar चन्द्रिका ढोका नोमन श्लोक कि नियमसे मोर जानेवाले देवों में परिगणित हैं। इन थम श्रादि चारों ही लोकपालोमेसे प्रत्येक की जो ॥ करोड अप्सराएं बताई गई है । ये सब नर्तकी नहीं हैं। साधारण परिवारकी देवियां हैं। इन्द्रके परिवारमें एक अनीक-सेनाके देव देवियोंका भी भेद है। जो सात प्रकार को है । इनमें एक भेद नर्तकियोंका है जिसकी कि गणमहत्तरिका नीलांजना बनाई गई है। इससे मालुम होता है कि सभी अप्सराएं नृत्यकारिणी ही नहीं हुआ करती। __ परिषद् नाम सभाका है। इसका शब्दार्थ "परितः सीदनि-सीदन्ति वा अस्पाम्" ऐसा होना है। इन्द्रकी तीन तरहको सभाएं हैं । अन्तः परिपन, मध्य परिषत और बाह्य परिषत् । तीनों ही सभाओंके सदस्य देवोंकी संख्या क्रमसे १२ हजार १४ हजार और १६ हजार है । इन्द्रकी भग्रहिषियो-न्द्रामिधाम से भी प्रत्येकी तीन-तीन परिपत हैं। जिनमें कि क्रमसे : सौ ६ सौ ७ सौ देवियां सदस्य हैं। इन्द्र इन देवोंकी उन परिपत्-सभाओंमें बैठकर कभी कभी पर्चा उपदेश आदि करता है तो वही एक मवतारी परम सम्यग्दृष्टि शतयज्वा कभी-कभी उन सभी देवियों एवं मप्सराओंकी परिपन्में बैठकर पवित्र एवं उचित भोगोंका का भी अनुभव किया करता है। चिरं, रमन्ते = रम्ने धातुका अर्थ क्रीड़ा करना आनन्द विलास भोग उपभोग करना है। चिरं यह अध्यय है । जो कालकी अधिकताको बताता है। जैसे कि चिरन्त चिरंतन चिरपटी चिरक्रिय चिरजीवी चिरायुम् इत्यादि । प्रकृतमें यह शब्द भायुपर्यन्त यथाप्राप्त भोगोंको बिना किसी विघ्न-बाथाके भोगते रहनेको सूचित करता है। तथा मनुष्योंकी अपेक्षा देतोंकी वथा देवों में भी सम्यग्दृष्टियों एवं इन्द्रोंकी भायुकी दीर्घता, अनपवर्त्यता, तथा पातायुष्कताकी अपेवासे उसमें पाई जानेवाली अधिकता मादि को भी बताता है। जिनेन्द्रभक्ताः--यह शब्द सम्परदृष्टि अर्थको बताता है। अंशतः अथवा पूर्णतया जो मोहकर्मपर विजय प्राप्त करनेवाले हैं उनको कहते हैं जिन | इनके जो इन्द्र हैं, इनपर जिनकी माशा चलती है उनको कहते हैं जिनेन्द्र । इस तरहके सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेशी जिनेन्द्र के जो मंत।सेवक पूजक पारायक हैं उनको कहते हैं जिनेन्द्रमक्त । यद्यपि जिनका मोहकर्ममिथ्यात्व सचामें है फिर भी जिसका उदय अत्यन्त मन्द मन्दतर अथषा मन्दसम हो गया है भी महान भद्रपरिणामी रहने के कारण जिनेन्द्र भगयानकी प्राक्षाको सर्वथा प्रमाण मानते और उनको श्रीज्ञानुसार व्रत संयम एवं तपश्चर्याक मी साधक हुमा करते हैं। फलतः वे भी जिनेन्द्र १-इन्द्र हुओ न शपीहू हुओ, लोकपाल कबहूँ नहिं हुओ। इत्यादि। २-स्वयंप्रमे विमाने मोमों लोकपालः अर्धतृतीयपल्ोपमायुः । चत्वारि देवीसालागि, अर्धदलीय पन्योपमायू'षि, पतुराणामनि लोकपालान तमोप्रमहिण्यः । अतृतीयपल्योपमायुषः । .... बतुर्णा सोकपालनामेकैकस्यापचतुर्थकोटो संध्या पसरसः । रा०पा०४- का भाय। -स्वादिभात्मनेपकी वर्तमानकाल अन्यपुरुष बचन ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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