________________
६४४
र
,
कि
अपेक्षा ही कही जा सकती है। जिस तरह कोई कहे कि "यह अधिक सुन्दर है तो यहाँ पर उस व्यक्ति व्यक्तिबोध करादेता है जिसकी या जिनकी कि अपेक्षासे विवक्षित व्यक्तिकी सुन्दरताका प्रतिपादन किया जा रहा है। इसी प्रकार यहां पर भी समझना चाहिये । ग्रन्थकारको इस शब्द के द्वारा भी मिध्यादृष्टि देवोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि देवोंके शरीरकी शोभा प्रकृष्ट हुआ करती है यह बताना अभीष्ट है । अथवा सामान्य देवोंकी अपेक्षा उन देवेंन्द्रोंकी, जिनको कि सम्यक्त्वके फलस्वरूपमें सुरेन्द्रताका लाभ होना यहां बताया जा रहा हैं, शोभा सातिय हुआ करती है यह प्रकट करना है। इस वाक्यमें जुष्टा शब्दका जो प्रयोग किया है वह साधारण 'सहित' अर्थको नहीं अपितु प्रीतिपूर्वक सेवन अर्थको बताता है । क्योंकि यह शक जिस जुप धातुसे बनता है उसके प्रीति और संवन दोनों ही अर्थ होते हैं। और यहां पर वे दोनों ही अर्थ करने चाहिये । कारण यह कि यहां पर सम्यग्दृष्टि की विशेषता घताना अभीष्ट हैं। जिस तरह " मारणन्तिकों सल्लेखनां जषिता "२ में जोपियाका अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन करना ही लिया गया हैं उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये। मतलब यह है कि सम्पन्टष्टियां निःकाल होते हुए भी उनके शरीरकी वह विवक्षित शोभा मिथ्यादृष्टि देवोंके शरीर की अपेक्षा प्रकर्षता के साथ और अधिक प्रीतिपूर्वक सेवा किया करती है ।
यहांपर प्रकृष्टा चासो शोभा च तया जुष्टाः सेविताः । इस विग्रहके अनुसार तथा प्रयुक 'प्रकृष्ट' शब्द के द्वारासम्यग्दृष्टि देवोंके शरीरकी शोभा में अतिशय सूचित कर दिया गया है कि--- यद्यपि सम्यग्दृष्टि निःकांच हैं वे उसको नहीं चाहते फिर भी यह शोभा अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उनके शरीर की और उनकी सेवा किया करती है ।
!
अमराप्सरसां - अमराश्च अप्सरसश्च तेषाम् | यहां सम्बन्धमें पष्ठी विभक्ति की गई है अतएव इस इतरंतर योग समासमें आये हुए अमर और अप्सरा शब्दोंका सम्बन्ध परिषदि शब्दकं साथ है। अर्थात् श्रमरों— देवकी सभा में और अप्सराओं की सभा में एक एक इन्द्रके देव और देवियोंका परिवार बहुत बडा है। देव और अमर पर्यायवाचक शब्द हैं। इनका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है। राका अर्थ सामान्यतया नृत्यकारिणी किया जाता है यद्यपि जी नृत्यकारिणी हैं उनकी अप्सराएं कहा जा सकता हैं किंतु सभी अप्सराएं नृत्यकारिणी ही हो यह बात नहीं है | इन्द्र- सौधर्मेन्द्र के विस्तृत परिवार में चार लोकपाल भी माने गये हैं। जो
१- स्वर्गच्युतिलिगानि यथान्यथां सुधाशिनाम् । स्पष्टानि न तथेन्द्रागो किन्तु लेशेन फर्नाति || आदि ११- २ ।। २- त० सू० ७ - २२ । ३ - ननु च विस्पष्टार्थं सेवितस्थेन वक्तव्यम् ? अविपापपतेः । न केवलं सेधनसिंह परिगृह्यते । कि तर्हि १ श्रीत्यपि । स० सि० :