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________________ .AAAAAAAAmhankinrar-r.i-nainamaraane चन्द्रिका टीका मैतीसवा लाल खेरया--कपायोदयसे अनुरंजित मन वचन कायकी प्रवृत्ति, ६.१७ इन्द्रिय और अवधिक विषयका प्रमाण और क्षेत्र । इस सरहसे आठ गुणोंके ग्रहण करने पर प्रायः भागमोक्त देवगतिसम्बन्धी सभी गुण . वर्मोका संग्रह होजाता है और इन के द्वारा सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होनवाली विशेषता का भी परिज्ञान हो सकता है। पुष्टि-इस शब्दसे शरीर उसके अवयवोंका उपचय विशेष तथा तयोग्य परमाणुओंका संबर होकर उनके निर्माण बंधन संपातमें विशेष परिणमन अर्थ ग्रहण करना चाहिये जैसा दिमागममें बतायागया है। . आगममें औदारिक शरीरकी अपेक्षा क्रियिक शरीरके योग्य परमाणु–आहारवर्गणाके स्कन्य अधिक सूक्ष्म हुआ करते हैं और प्रदेशों की संख्याकी अपेक्षा वे असंख्यातगुणे रहा परसेर हैं। उत्तरोतर ये दोनों ही विषय अधिकाधिक है फिर भी उनकी अवगाहना छोटी३ छोटी होती है। यह देवशरीरके परिणमन एवं बंधन संवातकी विशेषता है। जो ऊपर २ के देवों में अधिकाथिक पाई जाती है। मिथ्या दृष्टियोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टियोंके शरीरमें यह पोपण अधिक प्रशस्त और महान हुमा करता है। तुष्टा-तोष-संतोषके धारण करनेवालोंको तुष्ट कहा जाता है । प्रीत्यर्थक तुष पारसेक प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। इच्छानुसार विषयके प्राप्त न होनेपर भी अरति --अप्रीति अथवा अकृतार्थताके कारस पाकुलताका न होना तुष्टि यहा संतोष कहा जाता है। इसतरह पयाप्राप्त विषयमें भी प्रसभ रहने या आकुलित न होने को तुष्टि कहते हैं। जो इस तरहके अन्तरङ्गमावसे युक्त हैं वे सब तुष्ट समझे जाते हैं। दृष्टिविशिष्टा:-दृष्ट्या दर्शन विशिष्टाः युक्ता महान्तो वा इस विग्रहके अनुसार इस शब्दका अर्थ दर्शनसे युक्त अथवा दर्शनको अपेक्षा महान् ऐसा होता है । इसका अथ करते समय अधिकतर लोग "सम्यग्दर्शनसे युक्त-महित" ऐसा कहा करते हैं । क्योंकि उनकी दृष्टिमें "दृष्टि" शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शन है। किन्तु हमारी समझसे यहांपर दृष्टिशब्दका अर्थ सम्यदर्शन न करके दर्शनोपयोग करना चाहिये। प्रकृष्टशोमाजुष्टा:-प्रकृष्ट-सातिशय अथवा उत्तम शोभाक द्वारा जिनका प्रीतिपूर्वक सेवन किया जाता है। यह सामान्य शब्दार्थ है । इसमें जो विशेष अर्थ है उसपर भी ध्यान देना चाहिये । यहांपर प्रकृष्ट शब्द सापेक्ष है। प्रकृष्टता किसी न किसी अन्य व्यक्ति की १२-त० सू० अ० ३ "परं परं सूक्ष्मम्" ॥३७॥ "प्रदेशोऽगंख्येयगुणं प्राक् तैजसास" ॥२८॥ ३-सौधर्म स्वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना अलि और अन्तिम मर्थीिसद्धिविमानके देवोंकी अवगाहना १ अरलि प्रमाण ही हुआ करती है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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