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________________ का टीका चौदा १२.१ नही । इनसे धर्मका फल सिद्ध नहीं हो सकता । अतएव मुमुक्षुको मन वचन कापसे इसतरह इन सेवक चलना चाहिये और दूसरों का भी किसी भी प्रकारका अहित न हो उसको चाहिये कि अपनी बुद्धिको इन विषयों में मोहित न होने दे। मोही अज्ञानी और सकवाय व्यक्तियों के मोहक परिणाम वचन और प्रवृत्तियों से जैसे भी हो अपने को बचाकर रखने से हो सम्यग्दर्शन शुद्ध और परिपूर्ण रह सकता है और वास्तविक फलको उत्पन्न कर सकता है। अतएव इस अंगका भी बताना आवश्यक है। प्रथम अंगदेव, दूसरेमें आगा, और तीसरेमें गुरुकी मुख्यता है यह पहले यथावसर बताया गया हैं । सम्यग्दर्शनके विषय जिस तरह अस आगम और तपोभृत् हैं उसी तरह तस्वार्थ भी हैं। प्रथम तो जो आप्तादि हैं वे स्वयं ही तच्चार्थ हैं । मूर्तिमान तत्वार्थ होनेसे दोनों में भेद नहीं हैं । श्रथवा भेददृष्टि से विचार करनेपर तस्वार्थ से प्रयोजन छह द्रव्य सात तस्व, नव पदार्थ, पंचास्तिकाय, इन सभी से है । इनके सिवाय सिद्धान्त के पालनवर्षा आम्नाय दिसे भी है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी वास्तविकता सभी श्रद्धय विषयोंकी यथार्थता पर अविक निर्भर हैं । कारिका नं० ४ में दिये गये परमार्थ विशेषणसे जिन विषयोंका वारण किया गया है उनमें मोहित होनेवाले व्यक्तिका सम्यग्दर्शन समल पूर्ण अथवा अंगहीन माना जा सकता हैं। मुमुचु सम्पष्टिकों जिनमें मोहित नहीं होना चाहिये वे विषय मुख्यतया दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। या तो कुपथ — कुमार्ग, और उसके अनुसार चलनेवाला | अथवा कृपथ और उसके आश्रय । अर्थात् मिध्यात्व अज्ञान और कुचारित्र अथवा कुपथ और उसके धारण करने वाले मिध्यादृष्टि अज्ञानी और कुगुरु — हिंसामय, दयाशून्य, विवेकरहित प्रत या तप करनेवाले । इस तरह ये छः अनायतन हैं। अथवा कुदेव सुत्पिपासा भादि अठारह दोषोंसे युक्त मोही रागी द्वेषी एवं संसार प्रपञ्चमे पड़े हुए तीथकराभास आदि व्यक्ति विशेष एवं संशय विपर्यय अनध्यवसाय दोपांस युक्त युक्तिशून्य पूर्वापर बाधाओंसे पूर्व असमीचीन द्रव्यादिको विषय करनेवाला मिथ्या अप्रमाणभूत ज्ञान, हिंसा अवक्ष और परिग्रहसे युक्त चेष्टाएं- आचरण इस तरह तीन और इनके आश्रयभूत तीन अर्थात् कुदेवों की प्रतिमा और मन्दिर तथा असत् वष्त्रका जिनमें निरूपण किया गया है ऐसा मिध्याशास्त्र एवं असमीचीन धर्म व्रत आचरण तप श्रादिके धारण करनेवाले और उसका आग्रह रखनेवाले एवं समर्थकं प्रचारक श्रादि । इस तरहसे भी छह अनायतन हैं। ये अनायतन ऊपरसे कितने ही सुन्दर मालुम पड़ते हों परन्तु अन्तरंग में दुरन्त हैं दुःखरूप हैं, दुःखरूप संसारके जनक एवं वर्धक हैं। अतएव सम्र दृष्टि जीवको इनमें मोहित नही होना चाहिये । कदाचित् मोहित करनेवाले प्रसङ्ग भाकर १- अन्तसु रेन्तसंचारं बहिराकार सुन्दरम् । न श्रभ्यात् कुटीन मतं किंपाकसन्निभं ॥ प्रशस्तिलक ६-१०-१ 23 -
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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