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________________ २६८ नकर श्रावकाचार अनादिकालीन नहीं है। उसकी विवक्षित सम्यक्त्यपर्यायका श्रनादिकाल से प्रभाव ही था । परन्तु अपने उस अनादि अभावका अभाव करके शुद्ध स्वरूपमें उद्भूत हुआ है। इस तरह प्रागभावका अभाव करके पूर्ण शुद्ध रूप प्राप्त कर लेनेवाले इस सम्यग्दर्शनका कभी भी प्रध्वंस नहीं होगा यही उसकी अनन्तता है । सांसारिक पौगलिक पुण्यकर्मजन्य विभूतियोंसे यह अत्यन्त मिन है यही उसकी शुद्धता है जो कि अत्यन्ताभावरूप हैं । इसका अपने सहचारी अनन्त आत्मिक गुणों से सर्वथा भिनत्व - अन्योन्याभाव रहते हुए भी उनपर सभीचीनता आदि के सम्पादनका परम उपकार है, जिसके लिये कि वे सभी गुण इससे उपकृत हैं, यही इसका प्राधान्य है इसकी महत्व पूर्ण विशेषताओंका जिससे ठीक २ बोध कराया जासके ऐसा जगत् में कोई उपमान नहीं है । यदि इसकी स्वाधीनताकेलिये इन्द्र नरेन्द्र धरणीन्द्र यादिकी, अनन्तता के लिये सदा स्थिर रहनेवाले सुवर्णरत्नमय पूज्य सुदर्शनमेरु आदिकी, शुद्धिके लिये सदा निर्लग निर्विकार आकाशादिकी, पवित्रताकेलिये मंगलरूप अनादिसिद्ध क्षेत्र सम्मेाचल या कृत्रिमा कृत्रिम चैत्यालयोंकी सुखरूपता के लिये नवनिधि चौदह रत्न अष्ट प्रातिहार्य अष्ट मंगलद्रव्य आदि पुण्यनिमित्तक समस्त संसारके अभीष्ट विषयोंकी, सुख वीजताके लिये कामधेनु चिन्तामणि चित्रावेल कल्पवृच आदिकी अथवा अनन्त पुण्यके कारण देवपूजा तीर्थयात्रा पात्रदान श्रादिकी, अप्रमाता के लिये असाधरण गम्भीरता रखनेवाले स्वर्गसूरमण समुद्र आदि की अपूर्वता के लिये अनादिनित्य निगोद पर्यायका परित्यागकर मानव पर्याय पात्रदानके प्रसाद दशविध कल्प वृचोंका सुखोपभोग कर नवम प्रवेयक तकके पदको प्राप्त करनेवाले अभव्य जीवकी, प्रधानता के लिये जिसके कारण तीन लोकके सभी अधीश्वर आकर नमस्कार करते हैं उस सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर पुण्य कर्म की अथवा तज्जन्य जगदुद्धारक चौतीस अतिशयों से विभूषित तीर्थकर पदकी भी उपमा दीजाय तो वह भी उचित और ठीक नहीं होती । इस सम्यग्दर्शनकं अनुपम समीचीन सुख स्वरूपकी महत्ता और अगाथता आदिको दृष्टिमें रखकर ही प्रतिशक्ति अनुभव रखनेवाले महर्षियोंने परमागम में कहा हैं कि यदि तीन लोक और तीन कालके सभी भोगभूमिया विद्यावर चक्रवर्ती आदि समस्त मनुष्यों और चारों ही निकायके देवोंके सम्पूर्ण सुखोंको एकत्र किया जाय तो भी वह सिद्धभगवान के एक क्षणवर्ती सुखकी भी बराबरी नहीं कर सकता अनिर्वचनीयसे मतलब यह समझा जाता है कि जो वचनके द्वारा न कहा जा सके | इसका कारण और कुछ नहीं शब्दकी ही अयोग्यता है । क्योंकि मूलमें शब्द संख्यातर ही हैं। एक १ – मद्दिव्यं यच मानुष्यं सुखं त्रैकाल्यगाचरम् । तत् पिखितं नार्थः सिद्धक्षणसुखस्य च । आदि ११-२१२ -- नरकपशू दोनों दुखरूप, बहुनर दुखी सुखो नरभूप । ताते सुखी जुगलिये जान, ता सुखी फनेश बखान ||२८|| ताले सुखी सुरंगको ईश, अहमिंदर मुख घतिनिस दीस। सबतिकाल अनन्त फलाय, सो सुख ऐक समै सिवराय ||२६|| (धर्म विलास-यानतराय) २- क्योंकि आगममें मूल वर्ण ६४ और उनसे बननेवाले अपुनरुक्त शब्दोंकी कुल संख्या एक कम एकट्ठी प्रमाण ही बताई है इसके लिये देखो गो० जीव कारड गाथा नं ३५२, ३४३
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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