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________________ धन्द्रिका टीका उनसीम श्लोक __ स्वाधीनतासे मतलब यह है कि जिस तरह सांसारिक सम्पत्तियां पुण्योदयके अधीन हैं उस तरह यह किसी अन्यद्रव्य के वश या अधीन नहीं है, स्व-अपने ही अधीन है प्रथया अपनी भात्माके ही अथीन है। स्वाधीनतासे मतलब उसके कतव्य१ या नेतृत्वका भी । संसारके विरुद्ध मीचमार्गके संचालनमें सभी गुणोंको योग्य बना देना इसीका कार्य है । श्रेयोमार्ग में काम करनेवाले सभी गुणों को इसकी अपेक्षा है। इसके बिना कोई भी गुण श्रात्माको संसारपर विजय प्राप्त करानेमें समर्थ नहीं है किन्तु इसके प्रकाशमें सभी गुण अपना २ यथोचित एवं यथेष्ट कार्य करनेमें समर्थ हो सकते हैं और होजाया करते हैं । अतएव यह कहना अत्युक्त न होगा कि प्रात्माको सर्वथा स्वाधीन बनाकर मिद्धि पदपर प्रतिष्ठिर करानेमें मुख्यतया कर्तृत्व वास्ता इस सम्मादर्शको की भात है । इसी तमा नेतृत्वकै विषयमें समझना चाहिये । क्योंकि यही एक ऐसा गुख हैं जोकि प्रात्माके अन्य गुणों को अपने साध्यस्वरूपका प्रत्यय कराता उसमें रुचि उत्पन्न कराता, उघरको अभिमुख बनाता, और योग्य दिशा बताकर प्रेरणा प्रदान करता है । अनन्तसे मतलब यह है कि कालकी अपेक्षा इसकी कोई अवधि नहीं है जिसतरह पुरुष सम्पत्तियों का काल प्रमाण निश्चितर है उस तरह सम्यक्त्वकी स्थितिका प्रमाण नियत नहीं है यह अनन्त काल तक स्थित रहनेवाला है । यद्यपि पर्यायाधिक नयसे जिसका कि अंतरंग कारण विपक्षी पुद्गल कर्मोंके सम्बन्धका अस्तित्व है उसके भेदोंका काल अन्तमुहर्तसे लेकर बयासठ सागर तक आगममें बताया है फिरभी द्रव्यार्थिक नयसे सामान्यतया यह निरवधि ही है स्पोंकि मंसारपर्यापसे उमका सम्बन्ध छूट जानेके बाद यह अनन्त कालतक अपने पूर्वी शुद्ध स्वरूप में ही अवस्थित रहा करता है। शुद्धिसे मतलब यह है कि वह अन्य किसीभी द्रव्यसे संयुक्त नहीं हैं और इसीलिये तज्जन्म विकारोंसे भी अपरामृष्ट है । वह तो अपनेही पूर्ण शुद्ध स्वरूपमें अवस्थित है। इसीतरह वह पवित्र है । अर्थात् शुद्ध होकर भी मंगलरूप है, सब तरहके दोषोंसे रहित है, उसके निमिषसे अन्य मी समस्त गुख विकारों या दोषोंसे रहित होकर पवित्र-समीचीन बन जाते हैं । प्यान रहे शुद्धि और पवित्रतामें अन्तर है। इतनाही नहीं यह सम्यग्दर्शन स्वयं कन्पायकी मूर्ति एवं पिएर है और भन्यगुखों या प्रहतियोंमेंसे अकन्यासकारिताका मूलोच्छेदन कर अनन्त निर्वाध कल्याणोंको उत्पन्न करनेकी योग्यतारूप बीजका वपन करने वाला है। इसके प्रविमाम प्रतिच्छेद अंश मी प्रमाण अनन्त हैं। यद्यपि आगममें ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद सर्वाधिक बताये गये है फिर भी यह कहना अत्युक्त न होगा कि ज्ञान के प्रत्येक अंशमै जो समीचीनता है वह इसीका परिणाम है और वरदान है। फलतः झानका वह प्रत्येक विभाग प्रतिच्छेद अपनी समीचीनसाके लिये सम्यदर्शनका ऋणी है एवं कृता है । अपूर्व कहनेका आशय यह है कि इसकी शुद्धावस्था १ स्वतन्त्रः कती । २-ऐसा कोई पुण्यकर्म नहीं है जिसको स्थिति २० कोडाकोड़ी सागरसे अधिक हो ३-बायोपशामिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थितिका यह प्रमाण है। ४- अचल अनुपम पंचमतिको प्राप्त सिद्धोंके पाठ गुणोंमें सभ्यवर्शन प्रथम एवं मुख्य है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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