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________________ बलकरडश्रावकाचार प्राप्त कर लेता है और जब पापका निमिस मिल जाता है तब नियंगादि अनिष्ट मतियों-योनियों एवं विषयों को प्राप्त कर लेता है, किंतु संसारकी श्रृंखला का भंग नहीं होना । वह तो मिथ्यात्वके छूटने पर ही हो सकता है। अतएव जब तक मिथ्यात्व का प्रभाव नहीं होता तबतक विविध निमित्तों द्वारा संचित पुरुष भी अपना वास्तवमें कोई महत्व नहीं रखता। उसको तो केवल चार दिनकी चांदनी मात्र कह सकते हैं । अथवा यह भी नहीं कह सकते। क्योंकि पएपके फल स्वरूप प्राप्त होनवाले विषयोंसे जन्य सुखमें और आत्माके स्वाभाविक सुखमें अत्यन्त विरुद्ध जात्यन्तरता पाई जाती है । जैसा कि बासित १२ और यहीं पर इसी कारिकाके उत्तरार्धक कथनसे जाना जा सकता है इस तरहसे पुण्य और पाप सजातीय है तथा सहचर हैं। और इनसे प्राप्त होनेवाले विपथ भी प्रायः एक जातीय है। किंतु सम्यग्दर्शन और उसके फलका इनके साथ सर्वथा विरोष है। क्योंकि जीवोंकी परणति सामान्यतया तीन भागोंमें विभक्त है-पापरूप, पुस यरूप और वीतराग । इनमें से पहली दोनों बन्ध या संसारकी कारण अथवा संसाररूप हैं और अंतिम मोक्षको कारण अथवा मोक्षस्वरूप है जिसका कि बीज सम्यग्दर्शन है। कारिकाके उत्तरार्णमें सम्पग्दर्शनसे उत्पन्न होनेवाली सम्पधिको "अन्य" और भनिपचनीय३ कहा है। अतएव यहां पर यह जान लेना भी उचित और आवश्यक है कि किससे अन्य ? तथा अनिर्वचनीय कहनेसे क्या अभिप्राय है ? "अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा" इस न्यायकै अनुसार इसी कारिकाके पूर्वार्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही सम्यग्दर्शनजन्य सम्पत्तिको अन्य अर्थात् भिन्न समझना चाहिये यह बात स्पष्ट है। क्योंकि पूर्वार्ध में जिस पुण्यसम्पत्रिका निर्देश किया गया है उसका सम्बन्ध पुद्गलकर्मसे है और सम्यग्दर्शन उससे विरुद्धस्वभाव श्रात्माका गुण है । अतएव अन्य कहकर अन्थकार बतादेना चाहते हैं कि इन दोनोंका स्वरूप स्वभाव और फल परस्पर विरुद्ध है। पुण्य. फलका स्वरूप किम तरहका है यह कारिका नं० १२ में बतायाजा चुका है। अतएव सम्यग्दर्शनका फल उससे मिमस्वरूप है यह बिना कहे ही समझमें पा सकता है। फिर भी सम्यग्दर्शनजन्य सम्पत्तिकी असाधारण विशेषताओंका थोडासा संक्षेपमें यहां परिचय करा देना उचित प्रतीत होता है। पुण्योदयजन्य संपत्तियों के विरुद्ध सम्यश्व सम्पत्ति स्वाथीन है, अनन्त है, शुद्ध है, पवित्र है, मुखरूप है, सुखबीज है, अप्रमाण है, अपूर्व है, अनुपम है, प्रधान है, और अनिर्वचनीय है। १-परणति सब जीवनकी तीन भाति वरणी ।। एक राग, एक द्वेष, ऐक राग हरणी । तामें शुभ अशुभ भन्ध दोय करें कर्म बन्ध, वीतराग परिणति है भवसमुद्रतरणो ।। (भागचन्दजी) २-तीन भुवनमें सार वीतराग विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार नमहु भियोग सम्मारिके॥ 1-"कापि।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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