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________________ घान्द्रका टीका उनतासवा श्लाक प्रकृत कारिकामें पुण्यसे पाप और पापसे पुणपके परिर्वतनको सथा पुण्य पाप दोनोंसे भिन्न अलौकिक सुख सम्पत्तिके रूप में परिवर्तनको दिखाया गया है अतएव परिवत्ति नामका अलंकार माना जा सकता है। इसके सिवाय जाति नामका अलंकार भी यहाँ घटित हो सकता है। क्योंकि जहां पर सक्रिय अथवा निष्किम पदार्थके स्वभाव मात्रका वर्णन किया जाय-उपमा आदि प्रलं. कारोंका प्रयोग किये विनाही जिस पदार्थका जैसा स्वभाव उसका वैसाही केवल उल्लेख किया जाय वहां जाति नामका अर्थालंकार माना जाता है । यहाँपर धमाधर्मका और स्वभावतः उनसे उपलब्ध होनवाले कार्यों का उलेष जाति अलंकारको व्यक्त करता है। इसतरह अनेक अलंकारोंका संगम हो जाने से यहांपर भी संकर-अलंकारोंका सांकर्य माना जा सकता है। ___ तात्पर्य----प्रकृन कारिकामें धर्म शब्दका प्रयोग दो बार किया गया है । कुछ लोग दोनों का अर्थ सम्यग्दर्शन किया करते हैं । परन्तु हमारी समझसे पहले धर्म शब्दका अर्थ पुण्य अथवा शुमोपभोग करना चाहिये और दूसरे धर्म शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शन | कारण यह कि कुतेका देव होना वास्तवमें सम्यग्दर्शनका कार्य नहीं है। उसका कार्य तो वह अनिर्वचनीय सम्पति ही है जिसका कि उत्तरार्धमे उल्लंख किया गया है। यद्यपि कुछ सीर्थकर प्रादि पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध सम्यक्त्वसहित जीवके ही हुआ करता है, यह ठीक है। किंतु उसका अर्थ यह नहीं है कि उनके पंधका कारण सम्यक्त्व है । वास्तवमें सम्यक्त्वसहित जीवके कषायमें जो एक प्रकारका विशिष्ट जातिका शुभभाव पाया जाता है, वहीं उनके बन्धका कारण हुआ करता है न कि सम्यक्त्व। सम्यग्दर्शन तो मोधका ही कारण है । अतएव उसके द्वारा बन्ध न होकर संवर निर्जरा ही होसकती है। और इसीलिये कुत्ता या उसी तरहका अन्य कोई भी जीव यदि देवायु देवगति अथवा तस्सदृश अन्य पुण्य कर्मोका बन्ध करता है तो वहां पर सम्यक्त्वको वास्तव में अनुपचारित कारण न समझ कर किसी भी योग्य विषयका और किसी भी तरहका पैसाही शुभराग ही कारण समझना चाहिये। इसी तरह किल्बिष शब्दका अर्थ भी मिथ्यात्व न करके "पाप" करना चाहिये। हां, यह ठीक है कि समाहार द्वन्द्व समास होने के कारण जेसा कि ऊपर बताया जा चुका है धर्म और किन्विष विशेषण होकर मिथ्यात्वके साथ अन्वित होते हैं। फलतः अभिप्राय यह निष्पन होता है कि जबतक मिथ्यात्व भाव बना हुआ है तबतक पुण्यपापकी भूखला भी बनी हुई है। यह इसरी बात है कि कभी पुण्यका तो कभी पापका प्राधान्य होजाय । जब कभी पुण्यका निमित्त मिल जाता है जीव देवादि अभीष्ट माने जानेवाली अवस्थाशों और विषयोको १ पेनांशेन सुरष्टिस्तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनाशेन तुं रागस्तेनशिनास्य मन्धन भवति२१पुरु० तथा देखो परमागमोक्त तीर्थकत्वभावनाका प्राशय व्यक्त करनेवाला भनगार धर्मामृतका का पचनं २
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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