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________________ 北条 रत्न श्रावकाचार JAJ भवेत् — यह क्रियापद हैं जो कि स्वादिगणकी सृ धातुका विधिलिङ, धन्यपुरुष एकवचन का प्रयोग है। भू का अर्थ होता है होना और यह प्रयोग कर्तृभूत सम्पत्ति विधिपूर्वक तरूप होने की शक्यताको व्यक्त करता है । I अन्या - यह शब्द भी सर्वनाम और सम्पत्तका विशेषण है। जिससे विवक्षित सम्पत्तिकी भिमता अपूर्वता और अद्वितीयता बताई गई है। क्योंकि अबतक जितनी भी सम्पत्तियां प्राप्त हुई हैं उन सबसे यह सम्पत्ति सर्वथा भिन्न जातिकी है। अनादि कालसे अब तक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके समय से पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुई। और दूसरी ऐसी कोई सम्पति नहीं है जो कि इसकी समकक्षता - बराबरीमें उपस्थित हो सके अथवा उपमा या तुलना में जिसको रक्खा जा सके सम्पत्-शब्दका अर्थ विभृति प्रसिद्ध है किन्तु यहां पर प्रयोजन आत्माकी स्वाभाविक गुरु सम्पति है । निरुक्ति के अनुसार इसका अर्थ होता है कि जो सम्यक प्रकारसे विधिपूर्वक और सर्वथा अभीष्टरूपमें प्राप्त की जाय । श्रर्मात् - इस धर्म शब्द का अर्थ स्वयं ग्रन्थकार इसी ग्रन्थ के प्रारम्भ कारिका नं० २,३ के द्वारा बता चुके हैं। किंतु यहां हेतु रूपमें उसका प्रयोग करके किस तरहकी संपत्ति के साथ उसका वास्तव में हेतुहेतुमद्भाव हैं यह बताया गया है। शरीरिणाम् — इस शब्दका सामान्य अर्थ शरीर धारण करनेवाला होता है। किंतु यहां प्रयोजन तो उस सम्पत्तिके स्वामित्व को बताने का है? । अत एव सभी शरीरधारी उसके स्वामी हैं या हो सकते हैं यह बात नहीं है किंतु विशिष्ट सशरीर व्यक्ति ही उसके स्वामी हो सकते हैं । ग्रन्थकार इस शब्दका प्रयोग करके यह भी बताना चाहते हैं कि कदाचित् कोई यह समझे कि धर्म-सम्यग्दर्शन से प्राप्त होनेवाली सम्पत्तिके स्वामी केवल अशरीर परममुक्त सिद्ध परमात्मा ही हैं। सो यह बात नहीं हैं किंतु उसका स्वामित्व सशरीर व्यक्तियों को भी प्राप्त है। ऊपर यथासंख्य नामके अर्थालंकारका इस कारिकामें उल्लेख किया गया है। किंतु हेतु और परिवृत्ति नामके श्रर्थालंकार भी यहां घटित होते हैं। क्योंकि जहां पर किसी भी कार्यके उत्पन्न करनेवाले कर्ताकी तद्विषयक योग्यता बताई जाती है वहां पर हेतु अलंकार माना जाता है। अकृत कारिका पूर्वार्ध में 'धर्मन्विषात्' इस हेतु पदका और 'श्वापि देवोऽपि देवः श्वा' इस वाक्यसे उसके कार्य तथा तद्विषयक योग्यताका निदर्शन किया गया है। इसी प्रकार उत्तरामें 'धर्मात्' इस हेतु वाक्यका और 'कापि नाम भवेदन्या' आदि पदके द्वारा उसके कार्य तथा सद्विषयक योग्यताका प्रदर्शन किया गया है। अतएव यहांपर 'हेतु' अलंकारका सद्भाव राष्ट होता है। सश अथवा विसर पदार्थके द्वारा जहां किसीके भी परिवर्तन- पलटने पर बदलनेको कहा जाय वहां परिषश्चिरे नामका अलंकार माना गया है। १ - चतुरादि भोली पज्जसो सुभगो य सागारो। जागारां सरसो सलद्धिगां सम्ममुत्रगमई । ६५.जी. २-योत्पादयतः किंचिदर्थं कर्तुः प्रकाश्यते । तद्योग्यतायुक्तिर सौ हेतुरुक्तो दुधैर्यथा ॥ १०५॥ १-परिवर्तनमर्थेन सहशा सोनवा । जायतेऽर्थस्य यत्रासी परिवृत्तिर्मता यथा ॥ ९९२॥ वाग्भड |
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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