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चंद्रिका टीका उन्तीस श्लोक
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एक वचन हुआ करता है। यहां पर हेत्वर्थ में पंचमीका प्रयोग किया गया हैं। कुरु का देव होना अर देव का कुत्ता होना ये दो परस्पर विरुद्ध कार्य हैं। धर्म और किल्विष ये दोनों हेतु हैं। श्रतएव यथासंख्य१ नामक अर्थालंकार के अनुसार दोनों कार्योंके साथ दोनों हेतुओका क्रमसे सम्बन्ध जोड लेना चाहिये । अर्थात् धर्मके निमित्तसे कुत्ता देव हो जाता है और पापके निमिचसे देव कृता हो जाता हैं ।
इस पदमें समाहार द्वन्द्व समास होनेके कारण धर्म और किल्विष दोनों विशेषण हैं, और समाहार दोनोंका साहित्य प्रधानर है- विशेष्य है । अतएव इतरेतर द्वन्द्व में जिसतरह समासगत पद प्रधान होकर निरपेक्ष रूपसे किसी भी द्रव्य गुण पर्याय या क्रिया के साथ अन्ति हुआ करते हैं वैसा समाहारमें न होकर समासगत पद सापेक्ष होकर समाहाररूप किसी भी
गुण पर्याय या क्रियाके साथ अन्वित हुआ करते हैं। इसलिये भ्रम अर्थात पुण्य और
नाम पाप दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं और समाहार रूप मिध्यात्व भावके साथ अन्वित होते हैं । यही समाहाररूप मिध्यात्वभाव कुलेसे देव और फिर देवसे कुरूप परियमनका मुख्य हेतु हैं ।
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क्योंकि जब तक अंतरंग में मिध्यात्वका उदय रूप प्रधान एवं बलवत्तर कारण बना हुआ है तक इस तरह की सांसारिक पर्याय परिवर्जन को हुआ ही करते हैं और होते ही रहते हैं। मिथ्यात्व के अभाव होने और आत्माके स्वाभाविक गुण सम्यग्दर्शन के उद्भूत होनेपर ही वास्तव में शुभ और अशुभ गिनी जानेवाली सांसारिक पर्यायोंकी परावृषिकी निवृत्ति हो सक्ती हैं । अन्यथा नहीं । श्रतएव संसाररूप एक सामान्य पर्यायके अन्तरगत जो अनेक तथा अनेकविध परिमन होते रहते हैं उनका मूल कारण मिध्यात्व ही हैं । उसीको “धर्मकिन्विशत्" में समासका वाच्य और धर्म- पुण्य तथा किल्बिष - पापका हेतु समझना चाहिये ।
फा--- यह एक सर्वनाम शब्द है जोकि धर्म – सम्यक्त्वसे प्राप्त होनेवाली संपत्का विशेथा है और 'अप' warय से सम्बधित होकर उसकी अनिर्वचनीय विशेषताको सूचित करता है ।
नाम -- यह एक अव्ययपद है। इसका प्रयोग अनेक अर्थोंमें हुआ करता है। पर संभाष्य अभ्युपगम या विकल्प अर्थ समझना चाहिये। क्योंकि सम्यग्दर्शन अन्य सम्पचिकी अनिर्वचनीयताको कांपि शब्दके द्वारा सूचित किया गया है वह संभव है- युक्तिसिद्ध हैं, अभ्युपगत है-मागम सम्मत है और विकन्यरूप अर्थात् संसारकी संपत्तियों से भेदरूप एवं अनुभवसिद्ध है।
१---पथोकानां पदार्थानामर्थाः सम्बन्धिनः पुनः । क्रमेण तेन बध्यन्ते तद्यथासंख्यमुच्यते ||१३५|| बा० २ --- इतरेतरयोगे साहित्यं विशेष द्रव्यन्तु विशेष्यं समाहारे तु साहित्यम् प्रधानम् द्रव्यम् विशेषणम् सि० कौ० त० बो० पृष्ठ १३५ । ३ यद्यपि इस वाक्य के धर्म-किल्बिष शब्दोंको क्रमसे सम्यक्त्व-मिध्यात्व ऐसा अर्थ कोई कोई करते हैं। परन्तु हमारी समझसे इनका अर्थ पुण्य पाप है। और सभाद्वार-समासका अर्थ मिथ्या है।