SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ MVAANA रलकर श्रावकाचार एच तीसरे प्रकारकी मान्यता ही उपयुक्त है। किन्तु इसमें भी एक बात विचारणीय है। यह है प्रकृत विषय-सम्यग्दर्शनके फलकी गौणमुख्यता । क्योंकि किसी भी कारणके गौण और पुरुष इस तरह दोनों ही प्रकार के कार्य या फल संभव हो सकते हैं । सम्यग्दर्शन केलिये भाया हुमा धर्मशब्द भी जो यहां हेतुरूपमें प्रयुक्त हुया है उसके भी गौण तथा मुख्य दोनों ही फल या कार्य संभव हैं और बागममें माने गये हैं-बताये भी गये हैं। किन्तु इस कारिकाके निर्माणमें भाचार्य महाराजका मुख्य प्रयोजन उसके शुद्ध स्वरूप और असाधारण फलको ही बतानेका है। क्योंकि सम्यग्दर्शन के जितने भी फल बतायेगये हैं । यहां पर भी आगे बताये जायगे वे सम्यम्दर्शनकी अविकल सफलताको व्यक्त नहीं करते । यद्यपि इसका अर्थ यह नहीं है कि ये सम्पदर्शनके किसी भी अपेक्षासे किसीरूपम या किसी भी प्रशतक फल ही नहीं है अथवा इनको उसका फल कहना ही अयुक्त है। फिर भी यह कथन मिथ्या नहीं है.सर्वथा युक्तहै कि इसतरहके फल निर्देशोंसे सम्यग्दर्शनका न तो शुद्ध अविकल परानपेक्ष कार्य ही व्यक्त होता है और न उसका अव्यभिचरित विशुद्ध सबसे पृथक स्वरूप ही प्रतिभासित होता है। जो कि ग्रन्थ कर्माको यहां इस कारिकाके द्वारा बताना अभीष्ट है । अत एव ये दोनों बातें बताना इस कारिकाका प्रयोजन है शब्दोंका सामान्य-विशेष अर्थ वापि-रखा (श्वन्) शब्दका अर्थ-कुचा होता है। अपि अव्यय है जिसका अर्थ "मी" ऐसा होता है । देव शब्दका अर्थ सुर असुरपर्यायके धारण करनेवाला जीव । यह लिखा जा चुका है। जायते यह क्रिया पद है। जिसका अर्थ उत्पन्न होना है या "होजाता है। ऐसा करना चाहिये मतलब यह है कि मयं लोकमें "कुता" निकृष्ट माना जाता है और देव उत्कृष्ट । अत एव दोनोंके साथ "अपि" शन्दका प्रयोग करके धर्म और पाप दोनोंसे प्राप्त होनेवाले फलमें क्या अन्तर है यह बतायागया है। अर्थात् अन्यकी तो बात ही क्या कुत्ता सरीखा निकृष्ट प्राखी मी धर्म के प्रसादसे देवसरीखी उत्कृष्ट अवस्था को धारण करलेता है। इसी तरह देवपर्यायको प्राप्त संसारमें उत्तम गिना जानेवाला भी प्राणी जब पापके निमित्तसे कुत्ता जैसी निकृष्ट पर्याय को प्राप्त होता है तब मनुष्यका तो कहना ही क्या ? प्रतएव कर्मनिमिचक पर्यायसम्बन्धी विषयों के पाश्रयसे गर्य करना ठीक नहीं है। ___ यहां पर 'श्वा' और 'देव' दोनों ही शब्द उपलक्षण हैं। इसलिये श्वा शब्द से तुच्छ गिने जाने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मात्र का ग्रहण कर लेना चाहिये । इसीतरह उचम गिने जानेवाले राजा महाराजा सरीखे मनुष्य का मी देव शब्दसे ग्रहण किया जा सकता है। धर्मकिम्यिपाद-यहां पर धर्म और किन्विष शन्दोंमें समाहार इन्द्र समास है । परक किलिपश्च मनयोः समाहारः धर्मकिल्बिषम् तस्मात् । समाहार द्वन्बमें नपुन्सक लिंग और -राथपि "ये मिथ्यादृष्ट्यो जीवाः सझिनोऽसशिनोऽयका । व्यन्तरारले प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः ।। तस्वार्थसार की इस उक्ति के अनुसार असंही जीव भी व्यन्तरदेव हुधा करते हैं परन्तु असा को वहाँ उसकी विवक्षा प्रधान नहीं मालुम होती। क्योंकिता-सनी काही क्षण किया है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy