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________________ चन्द्रिका टीका उनतीसवां श्लोक .. ही विरोधी सस्त्र हैं, तब उसके साधन भी परस्पर विरुद्ध ही होसकते हैं। जो संसारका साधन है वह मोक्षका साधन नहीं हो सकता और जो मोतका साधन है वह संसारका साथन नहीं बन सकता । फलतः सम्यग्दर्शनका कार्य पुण्यकर्म में अतिशय पैदा करदेना भी नहीं बन सकता। किन्तु पुण्यकर्मों में अतिशय पैदा करदेना भी सम्यग्दर्शन का कार्य देखा जाता है इतना ही नहीं बल्कि अनेक पुण्यकर्म तो ऐसे हैं जिनका कि बंध ही सम्यग्गर्शनके बिना नहीं हुआ करता । अत एव सम्यग्दर्शनका वास्तविक फल क्या है ? इसका उत्तर इस दंग से मालुम होना चाहिये कि जिससे किसी प्रकारका विरोध उपस्थित न हो। इसी बातको ध्यानमें रखकर आचार्य स्टान्तपूर्वक प्रकारान्तरमे सम्यग्दर्शनका विशिष्ट फल और उसके भेद बतानेकेलिये यहां कारिका उपस्थित करते हैं... श्वापि देवोऽपि देवः श्या, जायते धर्मकिल्बिषात् । कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम ॥२६॥ अर्थ-~-धर्म-पुण्यके प्रसादस कुत्ता भी देव होजाता है, और पापके निमित्तसेदेव भी कुत्ता होजाता है। किन्तु वह सम्पत्ति तो कोई और ही है जो कि संसारी प्राणियोंको धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शनसे प्राप्त हुआ करती है। प्रयोजन-~-यद्यपि इस कारिकाके निर्माणका प्रयोजन क्या है यह बात ऊपरके कथन से ही मालुम होजाती है। फिर भी ऊपर जो प्रश्न उपस्थित किया गया है उसका उत्तर इस कारिकाके द्वारा होना आवश्यक है । लोगोंको मालुम होना चाहिये कि पुण्य से अतिरिक्त सम्यग्दर्शनका फल क्या है और वह किंरूप किमाकार है। यह बनाना ही इस कारिकाका मुख्य प्रयोजन है । ___ कारण यह कि प्रथम तो "धर्म" यह सामान्य शब्द है, लोकमें जो अहितकर कार्य है वे मी धर्म नामसे कहे जाते हैं जैसा कि पहले बताया जा चुका है। इसके सिवाय कोई ऐसे भी हैं जो कि लोको इष्ट समझे जानेवाले विषयोंके साधनोंको ही धर्म समझते हैं। जैसे कि पुरय कर्म और उसके साधन-परोपकार भक्ति विनय श्रादि । तीसरे वे हैं जो कि वास्तविक मात्मा हित एवं साधनोंको ही धर्म मानते हैं। इनमेंसे पहले प्रकारके व्यक्तियों की मान्यतापर तो ध्यान देने की ही आवश्यकता नहीं है। क्योंकि याङ्गिक हिंसा आदि में धर्मकी भावना को तो थोडीसीभी विचारशीलता. रखनेवाला व्यक्ति भी स्वीकार नहीं कर सकता । यह तो उसे नरकादि दुर्गतियों का कारण हिंसक पशुओं जैसा कार्य ही समझेगा। दूसरे प्रकारकी मान्यता वस्ततः मास्मदिरा से यदि सम्बन्धित नहीं है तो तुच्छ है नगण्य है क्योंकि ऐसा कोई भी साधन जो कि माला को सदाकेलिये सर्वप्रकारके दुःखों से मुक्त नहीं कर देता तो उसका कोई महत्व नहीं है | व १-जैसे कि तीर्थकर आहारकटिक नवप्र पेमकसे ऊपर के स्वर्गाके योन्य आयुस्थिति, तथा पार्टी मादिके योग्य गोत्रकर्ममादि। २-तम्बानं यत्र नासानं तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धनों का नाधर्मः सा गतिर्यत्र नागतिः ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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