SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५९ रत्नकरण्ड श्रावकाचार वस्तु याथात्म्यको ही प्रकाशित करनेकी योग्यता उत्पन्न करता है । किन्तु सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंमें यह योग्यता समानरूप में नहीं पाई जाती क्योंकि तीनों ही प्रकारकी योग्यताकी पूर्णता उसकी कर्म नोकर्म सम्बन्धी पर्यायाश्रित योग्यता पर निर्भर है यही कारण है कि वह सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके वादही अपने स्वामी आत्माको नियमितरूपसे उसी भवमें कर्मनीकर्म के सम्बन्धसे सर्वथा परिमुक्त नहीं बना दिया करता । उसको इस कार्यकी सिद्धिमें कमसे कम अन्त मुहूर्त और अधिक से अधिक परिर्वतन प्रमाण कालकी अपेक्षा रहा करती है श्राचार्य भगवान्नं सम्यग्दर्शन गुणकी उपादेय महत्ताको प्रकट करने के लिये जिस रूपमें जो दृष्टान्त उपस्थित किया हैं उससे यह बातमी स्पष्ट होजाती है कि उक्त मात्रमें उसके सम्यग्दर्शन से सम्पन्न रहते हुए भी पर्यायाश्रित कर्मनाकर्मसम्बन्धी वह योग्यता नहीं पाई जाती जिससे कि वह अथवा उसका सम्यग्दर्शन अपने उपर्युक्त तीनों ही दाह पाक और प्रकाशरूप कार्योंको उसी पर्याय पूर्ण एवं परिनिष्ठित कर सके । इस दृष्टान्त द्वारा जाति कुल आदि गर्विष्ठ सम्यग्दृष्टियों को इस बातकी शिक्षा दीगई है कि कर्मनिमित्तक सम्पत्तियों की अपेक्षा सम्यग्दर्शनसम्पत्ति अत्यन्त महान हैं, आदरणीय है, और उपादेय है । वह यदि किसी ऐसे व्यक्तिमें भी पाई जाती है जोकि जाति कुल आदिको अपेक्षा हीन है तथा वह यदि कमसे कम प्रमाणमें भी पाई जाती है तो भी वह आदरणीय ही है । जाति कुल आदिके द्वारा उसकी अवगणना करना किसी भी तरह उचित नहीं है। गुणवान् वही है जो दूसरेके रंचमात्र गुणसे भी प्रसन्न होता और उसका ख्यापन करता हैं । तथा किसी भी एक गुणकी अन्य कारणोंसे अवहेलना करना किसी तरह उचित संगत एव विद्वन्मान्य भी नहीं है । प्रश्न हो सकता है कि जिस सम्यग्दर्शनरूप धर्मकी आप इतनी महिमा बता रहे हैं उसका वास्तविक फल क्या है ? सभी पुण्यफलोंके सामने वही महान है, और उसके सामने जितनी भी सांसारिक सम्पचियां हैं वे सब तुच्छ और देय हैं। अतएव इन विभूतियोंके कारणभूव पुण्यसे परे सम्यग्दर्शन का फल बताना आवश्यक हैं जिससे मालुम हो सके कि यह फल सम्यग्दर्शन के विना अन्य किसी भी पुराय विशेषसे प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि संसारमें जितने भी अभ्युदय तथा सुखसाधन दृष्टिगोचर होते हैं वे तो सब पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाले हैं। फिर सम्यग्दर्शनका फल क्या रहजाता है? यदि पुण्यकर्म में अतिशय अथवा विशेषता पैदा करदेना ही इसका फल है तब तो वह भी प्रकारान्तरसे संसारका ही साधन ठहरता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तो धर्म है और धर्मकी व्याख्या करते समय कहा यह गया है के धर्म वह है जो कि संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख -मोचमें उपस्थित करदे | जब संसार और मोक्ष दोनों १- इसकी कथाको कथाकोषादि प्रन्यतरसे देखना चाहिये। २ परगुणपरमाणुन पर्वशोकृस्य नित्यं निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः । ३ - आत्मस्थितेर्वस्तु विचारणीयम् न जातु जात्यन्तरमंशदेण । दुर्बनिर्वविधौ सुधानां सुवर्णवर्णस्य मुधानुबन्धः ॥ यश०| I
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy