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________________ पत्रिका टीका अठाईसवां २५.१ दहक रहा है उसी तरह दिवचित मातंगपुत्र भी ऊपर से शरीर की अपेक्षा तो दीन हैं परम्तु अन्तरंग में सम्यग्दर्शन के ओजसे युक्त है । यही उपमानकी सदृशता उसमें पाई जाती है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि जो बात जिस अपेक्षासे कही गई है उसको उसी अपेक्षा देखना चाहिये और इसी तरहसे उसको ग्रहण करना चाहिये तथा तदनुसारही areer भी करना चाहिये । इसके विरुद्ध देखना मिथ्यात्व हैं, जानना अज्ञान है और व्यवहार असच्चारित्र है। J आचार्य भगवान्ने सम्यग्दर्शनरूप आत्मधर्मकी महिमा बतानेकेलिये मातंगशरीरस्थ मात्माकी प्रशंसा की है न कि उसके शरीरकी । प्रत्युत शरीरको भस्मके स्थानापत्र महाकर उसकी निकृष्टता ही व्यक्त की है। अतएव यदि कोई व्यक्ति आत्मधर्मके सम्बन्धमें बताये गये forest शरीरमें देखना चाहता है तो वह मिथ्यादृष्टि है । और यदि आस्माकी पवित्रताका सम्बन्ध शरीरमें जोडकर शरीराश्रित व्यवहार भी तैयाड़ी करना चाहता है जैसाकि उच्चारीरके विषयमें विहित है तो अवश्य ही वह भी अतत्त्वज्ञ है विपर्यस्त है और पथभ्रष्ट है। साथ ही साधनरूपधर्मको यथार्थता और पवित्रताको नष्ट करनेवाला है। इसी तरह शरीराश्रित हीनताका सम्बन्ध यदि कोई श्रात्मा में भी जोड़कर देखता है और शरीरके हीन होनेसे आत्माको भी डीन समझता है, सम्यग्दर्शन जैसे गुणसे विभूषित भी आत्मा को हीन मानता है, तथा उस गुणका उचित सम्मान न कर उसी तरह हीन व्यवहार करता है जैसा कि हीन शरीर के साथ किया जाता है तो अवश्य ही वह भी मिध्यादृष्टि है अज्ञानी है अथवा जातिगर्विष्ठ और अपने उचित कर्तव्य के पथसे दूर है। मार्गका मुख्य सम्बन्व आत्मासे ही है क्योंकि रस्मत्रयमात्मा के ही स्वभाव एव धर्म हैं। किन्तु उसका साधन व्यवहार मुख्यतया शरीरसे सम्बन्धित है । दोनों ही विषय परस्पर विरोधी नहीं हैं। जो जिसका साधन है वह उसका विरोधी हो भी नहीं सकता । जो विरोधी हैं वह उसका साधन नहीं हो सकता? | अतएव दोनों नयोंके विषयमें भविरुद्ध प्रवृति ही भोषका उपाय हो सकती है। अग्निके तीन कार्य प्रसिद्ध हैं-दाह पाक और प्रकाश | परन्तु सभी अग्नि तीनों कार्य कर सकती है यह बात नहीं है। किसीमें एक किसीमें दो और किसीमें तीनों ही कार्य करने की सामर्थ्य रहा करती हैं। इसी तरह अग्नि स्थानापण आत्माकं सम्यग्दर्शन गुणमें भी तीन सामर्थ्य हैं- दाइ पाक और प्रकाश विरोधी कर्मेनका वह दाह करता है, संसारस्थितिको पकाता है और अपने भाईयोंके समान ज्ञानादिगुणोंको प्रकाशित करता है मथना उन गुबोंगे १- रयणतयं ण वह अच्या सुयदु श्ररणदवियम्मि । तम्हा सशियम ओ होदि मोक्लम्स कारणं अश व्यसंग्रह ॥ ४० ॥ २ - धर्मः सुखस्य हेतुहेतुर्न विराधकः स्वकार्यस्व । तस्मात्सुलभंगमिया मा अर्धस्य विमुखसम्म ||२०|| आत्मानः |
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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