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________________ २४.० निकर कार्यार पर्यायकी अपेक्षा दोनोंमें “अन्तरम् महदन्तरम्" । है क्योंकि सांसारिक ही नहीं पारमार्थिक भी srier अधिकतर पर्यायाश्रित ही हुआ करता है । श्रतएव श्रात्मासे अभिन्न सम्यग्दर्शन गुणकी अपेक्षा वर्णन करते समय परार्थित पर्यायकी पर्यायी पाई जानेवाली कथंचित् श्रभि मताका परित्याग नहीं किया जा सकता । तथा अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तरूप वस्तुके याथात्म्यका बोध कराने की सद्भावना से प्रवृत्त हुये कविधा भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते जिनसे कि तत्त्वस्वरूप में संशय विपर्यय अनध्यवसाय बना रहे अथवा उत्पन्न हो या अभ्यास अतिव्याप्त रूप परिज्ञान हो । फलतः दोनों में पर्यायाश्रित जो महान् अन्तर है उसको स्पष्टकरनेके लिये ही नहीं अपितु मातंग पर्यायकी अपेक्षा जो देव पर्यायकी अधिकता एवं उत्क ष्टता है उसको भी व्यक्त करनेकेलिये आवश्यक इस अलंकारका आचार्यने इस अवसर पर प्रयोग क्रिया है । इससे शरीर सम्बन्ध के कारण संसारी जीवोंमें जो न्यूनाधिकता पाई जाती है उसकी यथार्थता भी दृष्टिमें आ जाती हैं। देव शब्दसे अरिहंत देव गणधरदेव और स्वर्गीयदेव इसतरह तीन का ग्रहण किया गया है, अतएव तीनों ही की अधिकताका मी बोध हो सकता है। साथ ही देव शब्द उपलक्षण है इसलिये मातंगके समान ही श्रदारिक शरीरके धारकों में भी जो अन्तर है या परस्पर में एक से दूसरे में अधिकता पाई जाती है वह भी समझी जा सकती हैं। इस तरह व्यतिरेकालंकार के द्वारा दो पदार्थोंमें से एक की अपेक्षा दूसरेकी अधिकता मालुम हो जाती है। समुच्चयमें उत्कृष्ट अपकृष्ट या मध्यम अनेक विषयों का संग्रह हुआ करता है । यहां पर मानकपुत्रमें तीन उत्कृष्ट विषयोंका संग्रह किया गया है, सम्यग्दर्शनसंपन्नता, अन्तर श्रीज और देवत्व | area यह अलंकार स्पष्ट है । अप्रस्तुत प्रशंसा में प्रकृत विषयकी प्रशंसाकी जाती है। तदनुसार यहां पर भी समझना चाहिये। क्योंकि यद्यपि मानवपुत्रका वन यहां प्रकृत विषय नहीं है । वास्तवमें तो सम्यग्दर्शन प्रकृत विषय है । परन्तु उसके सम्बन्धको लेकर विषयको दृढ करनेके लिये मातङ्गके देवस्वका यापन किया गया है। अत एवं अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार भी यहां कहा जा सकता है। कारिकाके चतुर्थ चरण में उपमा अलंकार भी पाया जाता है। क्योंकि उपमा अलंकारमें किसी एक वस्तुके किसी एक विवक्षित धर्मकी सदृशता अन्य वस्तुमें बताई जाती है। जिसके धर्मकी सशता बताई जाय उसको उपमान और जिसमें वह सदृशता दिखाई जाय उसको उपमेय कहते हैं। यहां पर "सस्मगुहाङ्गार" उपमान है और सम्यग्दर्शनके आन्तर भोजसे युक मातङ्गपुत्र उपमेय है । जिस तरह विवचित अंगार ऊपर से तो भस्मसे श्राच्छन्न है किन्तु भीतर से १- वाजिवारण लोहानां कापाषाणवाससा । नारीपुरुषतीयानामधरं महदन्तरम् ॥ २- प्रशंसा क्रियते यत्रा प्रस्तुतस्यापि वस्तुनः । अप्रस्तुतप्रशंसां तामाहुः कृतधियो यथा ॥ १३४ ॥ ३ उपमा अथवा प्रतिवस्तूपमा । उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा । प्रत्यषान्पयतुल्यार्थसमासैरुपमा मता ||२०|| अनुपात्ताविवानां वस्तुनः प्रतिवस्तुना । यत्र प्रतीयते साम्यम् प्रतिवस्तूपमा तु सा ॥ ७१ ॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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