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________________ Jaminakchadain-raminankrana बौद्रिका टीको परा श्रीक है। तदनुसार साधुको विषय भोगों से सर्वथा विरक्त एवं अलिप्त और असंस्पृष्ट रहना चाहिये। साथ ही प्रारम्भ और परिग्रह से भी सर्वात्मना दूर ही रहना चाहिये उसको केवल ज्ञान ध्यान और तपमें ही अनुरक्त रहना चाहिये। ऐसा करने पर ही वह अपनी आत्माको परम मुक्त सिद्ध कर सकता है। ध्यान रहे उत्तरार्थ में कही गई तीन बाते-बान ध्यान और तए ये उत्तरोत्तर उत्कृष्ट एवं साध्य हैं और पूर्वाध कहे गये तीन विषय उनके क्रमसे साधन हैं । यद्यपि इन तीन विशेषणोंसे प्रसाचर्याश्रमी गृहस्थ और पानप्रस्थाश्रमियोंसे चतुर्थाश्रमी इस तपस्वीका पृथककरण होजाता है। फिर भी जहांतक उस आश्रमके विशिष्ट कर्तव्यका बोध न कराया जाय तब तक शेष तीन श्राममासे पृथकसा बता देने मात्रसे प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती। अतएव चौथे विशेषणके द्वारा चतुर्थाश्रम मन्यासके असाधारण कर्तव्यका झान कराया गया है। क्योंकि इस भाश्रमको धारण करके भी उसकी सफलता बास्तबमें ज्ञान ध्यान और तपके ऊपर ही निर्भर है। हो, पह ठीक है कि विषयाशाका परित्याग ज्ञानाम्यासमें, प्रारम्भका त्याग ध्यान और परिग्रहका असम्बन्ध तपश्चरणम कारण है। परन्तु विचार करने योग्य बात यह है कि ब्रह्माकथिममें ज्ञानाम्पास करने का जो उपदेश या विधान४ है वह साधारण है न कि असाधारण । स्था गृहस्थाश्रमियोंक भ्यान होना अत्यन्त कठिन और उच्चकोटिका तपश्चरण वीरचर्या मातापन योग आदि वानप्रस्थाश्रमियोंके लिये भी निषिद्ध हैं । अतएव पारिशेष्यात् साधुकेलिये ही इन तीनों विषयोंकी असाधारण योग्यता सिद्ध होती है। क्योंकि ये तीनों माश्रमों में पाई जाने वाली अटियोंसे सर्वथा उन्मुक्त हैं । ___ इस तरह सम्यग्दर्शनके लक्षणका विधान करमेवाली कारिका नं. ४ में श्रद्धानरम विपाके कर्म प्राप्त मागम और तपोभृका यहांतक स्वरूप बतायागया। अब क्रमानुसार उसी वक्षन विपाके विशेषणोंका वर्शन अवसर प्राप्त है। उनमें सबसे पहिला क्रिया विशेषण है "त्रिमहामोर" बतच उसीका वर्णन होना चाहिये । लेकिन भाचार्य पहले उसका वर्शन न करके सबसे अचम इसरे विशेषया "अष्टाङ्ग" का यहां वर्णन करते हैं। ऐसा करनेका हमारी समझसे संभवतः कारण यह है तीन क्रिया विशेषों में पहला और तीसरा निषरत है और दूसरा उसके स्वरूपमा विधान करता है। अतएव सरूपाल्यान अमन्तर ही विशिष्टनिषेयके योग्य विषयका बताना उचित एवं ठीक समझोगया हो। यथापि निकित आदि भी निषेधरूप हैं परन्तु ये दोषोंका निषेध करके गुणरूपताका विधान करते हैं। अस्तु । नप यहां प्राचार्य सम्यग्दर्शन मथवा श्रद्धानके आठ अंगोंका वर्णन कर उसका स्वरूप असाते हैं। पाठ अंगोंमें मी चार निषेधरूप और चार विधिरूप हैं । पहिले चार निषेषरूप अंगों में से यहां सबसे प्रथम पहले निःशंकित अंगका वर्णन करते हैं।४.... देखो आदिपुराण । .....गृहाश्रमे नात्महितं प्रसिद्धर्थात । तथा "विकुलिका भवति सस्स ताका" - -
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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