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________________ atter tet rai लोक ८१ दिया करते या लिख दिया करते हैं जो कि स्वरूप विपर्यास अथवा कारण विपर्यासको सूचित करते है । उदाहरणार्थ यह कहना कि उन्होंने फैली हुई हिंसावृत्ति को दूर करनेके लिए सर्वस्वका त्याग किया दीक्षा धारण की और उपदेश दिया । इत्यादि । क्यों कि इस कथनसे उनके दीक्षा धारण में परोपकार करनेकी सराग भावना मुख्यतया हेतु रूपसे व्यक्त होती है जो कि यथार्थ नहीं है। क्योंकि उन्होंने तो होता ही शात्म कल्याणके ही लिये ली थी तथा रागादिसे युक्त उपयोग तो बन्धका ही कारण है। और उनका उपयोग उससे सर्वथा रहित होता है। हां, यह कहा जा सकता है कि उनके उपदेशके कारण हमारा कल्याण हुआ, जगत् का कन्या हुआ और फैली हुई हिंसा वृत्ति दूर हुई। उनके उपदेशसे वे कार्य हुये यह कहना और इन कार्यों के लिये उन्होंने उपदेश किया यह कहना इन दोनोंमें आकाश पाताल जैसा अन्तर है । परोपकार की भावना यह ठीक हैं कि पुरुप बन्धका कारण है परन्तु इससे वन्धकी कारण रूप उनकी अवस्था ही तो सिद्ध होती है जो कि आगम युक्ति और अनुभव सर्वथा विरुद्ध है । यही कारण है कि इस तरहके भ्रमका परिहार करनेकेलिये आचार्यने यहांपर यह कहदिया है कि भगवान्का जो शासन उपदेश प्रवृत होता है उसमें न तो किसी तरहका अपना ही ख्याति लाभ पूज्यता आदि प्रयोजन निमित्त हैं और न रागादिके द्वारा - परोपकारादिकी भावनाएं ही वह प्रवृत हुआ करता है। ध्यान रहे कि इसीलिये अरिहन्त भगवानको निर्दय कहा गया हैं। क्यों वे वीतराग होनेके कारण परोपकारकी सराग भावना- दयासे रहित हैं जैसा कि पहिले भी कहा जा चुका है। उनकी दिव्यध्वनि होनेमें कारण भव्य श्रोताओं के भाग्य के निमित्तकी विवशता और उनके तीर्थरूर प्रकृति आदिके उदयरूप नियति के कारण उनकी किसी भी तरहकी इच्छा के विना ही वचन योगकी प्रवृत्तिका होना है अतएव वे उपदेश करते हैं— देते हैं इस तरहका वचन कोई कहता है तो उसका अर्थ यहीं समझना चाहिये कि उनसे उनके शरीरसे कर्मोदय यश तथा संस्कारवश४ और श्रोताओंके भाग्यवश - दिव्य ध्वनिका निग हुआ करता है। वस्तुतः निश्चय नयसे वे उसके कर्त्ता नहीं हैं। इसलिये श्राचार्यने कारिकाके उत्तरार्ध में मासिक जड़ हाथथापके निमित्तका और उससे होनेवाली जड मृदंगकी ध्वनिका अर्थान्तरन्यासके द्वारा उल्लेख कर दिया है । अथवा इस जगह कीचक जातिके वांससे होनेवाल शब्द का भी उदाहरण दिया जा सकता है मतलब इतना ही हैं और यही हैं कि निचांकी प्रबलतासे उनके उपदेश दिन ध्वनिरूप बचनकी तथा तन्निमित्तक वचनयोगकी आदभूनि होजाती है किंतु वे उसको उत्पन्न नहीं करते । ग्रन्थकर्त्ता की इस उक्ति से आगमको उत्पासके विषय में जो अनेक तरहकी मिथ्या मान्यताएं प्रचलित हैं उन सबका निराकरण हो जाता है । 11 - १- स्वयंभू स्तोत्र । २ -- ठाणगिसंज्जविहारा धम्मुबदेसो य विदमा तेसिं । प्र० सा० ॥ ३- तीर्थकर सुरवर आदि । ४ - तीर्थकर कर्म बन्ध के समय उत्पन्न हुई तीर्थकृत्य भावना का संस्कार । यथा धन ध. १-२ ।। ५ – भविभागनि वच जोगे बशाय, तुम धुनि सुनि मन विभ्रम नशाय ।। ६- कीचका वेणवस्ते स्वनन्त्यनिलोद्धताः ।।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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