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रतकरएडश्रावकाचार
लोकमें दण्ड देकर शासन किया जाता है किंतु प्राप्त परमेष्ठी भगवान केवल उपदेश देकरही शासन किया करते हैं। उनके उपदेश में क्योंकि वे निर्दोष तथा सर्गज्ञ हैं अतएष दो विशेषताए पाई जाती हैं। प्रथम तो यह कि वह उपदेश किसी भी प्रयोजन से प्रेरित नही हुमा करता। जैसा कि इस कारिकामें दोनोही क्रियाविशेषणों द्वारा बताया गया है। दूसरी विशेषता आगे सलकर कारिका नंबर के द्वारा बताई जायगी कि उनका शासन आदेश किन किन विशे. पताओं से युक्त रहा करता है।
सतः और हितम् ये दोनो ही शब्द शास्ति क्रिया के कर्म है। क्योंकि शास धातु द्विकर्मक है। अतएव इन दोनोंका कर्म कारक के रूपमें प्रयोग किया गया है। और इसीलिए सतः यह षष्ठी विभक्ति का एक वचन न मानकर द्वितीयाका बहु वचन समझना चाहिये । जिसका अर्थ होता है सत्पुरुषांकी-भव्यों या मुमुक्षओंको। क्योंकि उनके पास समवसरणमें असन् पुरुष, अभव्य तथा जिनको मोक्ष की आकांक्षा ही नहीं है ऐसे तीन मिथ्यादृष्टि-दीर्घ संसारी पहूँचतेहीर नहीं है । हितसे मसलब है कि प्रात्माकी समस्त कर्मों से प्रात्यन्तिक नित्ति ।।
प्रकृत कारिका के उत्तरार्धमें दृष्टांत गर्भित भर्थान्तरन्यास४ अलंकार के द्वारा पूर्वार्ध में कथित विषय का समर्थन किया गया है । 'किमोटते' गा नवमूक्तिी एव उसका अर्थ होता है कि वह किसीकी भी अपेक्षा नहीं करता।
तात्पर्य यह कि इस कारिका द्वारा आगमेशित्वके वास्तविक स्वरूपका और उक्त प्राप्तके प्ररूपित आगम के प्रामाण्यका दिग्दर्शन-संक्षेपमें किंतु बहुतही सुन्दर ढंगसे युक्तिपूर्वक कराया गया है। यदि यह नहीं बताया गया होता तो अधिक संमत्र था कि लोगों को इस विषय में प्रम या विपर्यास अथवा अज्ञान बना रहता । या तो वे विपरीतयुद्धि होजाते अथरा बने रहते । जिस तरह कृतकृत्य ईश्वर के विषय अवतार लेने आदि के हेतु अथवा प्रयोजनकी कल्पित एवं मिथ्या उक्तियोंको सुनकर भी लोग विपरीत दृष्टि बन जाते या बने हुए हैं उसी तरह यहां पर मी बने रहते।
अाज हम देखी हैं कि सर्वज्ञ वीतराग निर्दोष तीर्थकर भगवान के अनुयायियों में भी यह एक बहुत बडा तात्त्विक ज्ञान पाया जाने लगा है कि वे भी मिथ्यादृष्टि की तरह भगवान महा बीर स्वामी आदि के विषयमें कुछ श्रमोत्यादक अथवा दिपर्यास पैदा करनेवाले ऐसे वाक्य रोल
का अर्थ है-"प्राप्तवाक्यनिवन्धनमर्थज्ञानमागमः" । १-दण्डो हि केवलं लोकमिमं चामुष रक्षति । राझा शत्री य पुत्र प यथा दोषसमं धृतः॥ यशस्विलक ॥ २-हरिवंश पुराण ०५७-१७३ ॥ ३-सर्वार्थसिद्धि।
उक्तसिद्धयर्थमन्माईन्यासो न्याप्तिपुरःसरः । कथ्यतेऽर्थान्तरन्यासः श्लिष्टोऽश्लिष्टश्च सद्विषा ।। -२|| वाग्भटालंकार। ५- इसको आक्षेपालंकार करते हैं। यथा-किर्यत्र प्रतीतिर्वा प्रतिषेधस्य जायसे । पाचक्षसे तमाक्षेपा.
लंकारं विबुधा यथा ।। ७ ।। खोके विनिंचं परदारर्म मात्रा सहैतत् किमुकोऽपि कुर्यात् । मांस अपोचदि कोपि लोखः किमागमस्तत्र मिदर्शनीयः ।। यशस्तितक।