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________________ শাম্বা বাক্য গাথা খাদ্ধ १ कह स्वके सम्बन्ध को लेकर ईश्वर के विषयमें यह आक्षेप उत्पन्न होता है कि बिना प्रयोजन कृतकृस्प ईश्वर सष्टि रचना के कार्यम क्यों प्रवृत्त होगा? उसी तरह क्या कारण है कि प्रतमें मी आक्षेप उपस्थित नहीं हो सकता। इस शंकाका समायाम करना इसलिये आवश्यक हो जाता है कि प्राप्तके वास्तविक एवं साधिक स्वरूप से प्रायः प्राणीमात्र अनभिज्ञ है। मोही संसार जब तक उसके स्वरूपके विषयमें संशयित विपर्यस्त या अनध्यवसित बना हुआ है तब तक दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखरूपअवस्था में अस्थित नहीं हो सकता। जिस हेतुसे परम करुणावान भगवान समन्तभद्र स्वामीने इस ग्रन्थ के निर्माण का प्रारम्भ किया है उसकी सिद्धि उन माप्त परमेष्ठी के स्वरूपके परिवानपर ही निर्भर है। अतएव उसके सम्बन्ध में यह बताना अत्यन्त आवश्यक है कि नह प्राप्त पूर्णतया निमोह और निर्दोष होकर बिना किसी प्रयोजन के ही श्रेयोमार्गके उपदेश कार्यमें क्यों और किस तरह प्रात्त हश्रा करना है। इसी प्रयोजनसे इस कारिका का निर्माण हुआ है। इसके द्वारा अन्य कार को यही बताना अभीष्ट है कि मद्यपि यह कहना सर्वथा सत्य है कि संसारका कोई भी कार्य प्रायः स्वार्थ या परार्थ अयथा दोनों इनमेंसे किसी भी प्रयोजनके विना नहीं हुआ करता फिर भी बाप्त परमेष्ठी के इस धर्मोपदेश कार्य में यह नियम या मान्यता लागू नहीं होती-व्यमिषरित हो जाती है। किस तरह व्यभिचरित हो जाती है यह बात दृष्टांत द्वारा स्पष्ट कर दी है। शब्दोंका सामान्य विशेषार्थ अनात्मानम् का अभिप्राय है कि जो अपने किसीभी प्रयोजमसे न हो और विना रामः करनेसे मतलब यह है कि जो दूसरंके हित को सिद्ध करनेकी अनुग्रह रूप भावना मादि से सपा राहत हो। "विना" के योगमें व्याकरणके नियम के अनुसार राग शब्द में पनीया विमति हुई। और इस विमा सर्गः वाक्यांश का सम्बन्ध शास्ति क्रियाके साथ है। अतएव अथवा अनात्मा. र्थम की तरह यह भी "शास्ति" क्रिया काही विशेषण है । इन दोनों विशेषणों द्वारा प्राप्तभगवान के शासन की असाधारण विशेषता व्यक्त की गई है। शास्ता शब्द प्राप्त के लिए शासन नियाके की रूपमें प्रयुक्त हुआ है। अतएव यह शब्द, श्राप्त की शासन क्रियाक करने में स्वतन्त्रताको चित करता है। शास्ति क्रिया है जिसका अर्थ है शासन करना । शासनका मतलब है कि जो शास्त्र है अपने से छोटे हैं अथवा रक्षण की इच्छा रखते है। पढ़ा हित मार्गमें अनमिश रहने के कारण उसको जानना चाहते हैं उनको उपदेश देकर हित में लगाना और अहित से बचाना। १-प्रात्मनः- स्वम्प अर्थ:- प्रयोजनम् (अर्थोऽभिधेयरैवस्तु प्रयोजननिसिषु) इति आत्मान मात्मार्थो यस्मिन् कर्मणि तत् श्रमात्मार्थम् ।। २-"स्वतन्त्रः फर्मा । विवक्षित क्रियाके करने या न करनेमें तथा उसके साधक कारकोंको उपयोग में लेने न लेने के लिए जो स्वाधीन है यह करती है । ३–यहां शामनसे मतलब है भागमका । और बागम
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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