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________________ এলেঙ্কশাস্কাৰী अनादिमध्यांत शब्दको मर्मज्ञ और सार्न एनं मागमेसी के बीस रखना इस बाशयको भाष्य कर देता है। ___ इस कारिकामें दिये गये विशेषणों के सम्बन्ध में ऐसा जो कहीं २ कहा गया है कि यह मनकी ही वाचक नाममाला है। सो इससे यह नहीं समझना कि ये शब्द या विशेषण अपसेर सर्वथा असाधारण विशिष्ट अर्थका ज्ञापन नहीं करते हैं। मतलब यह कि जिस तरह नामनिक्षेप में अर्थकी अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहार सिद्धि के लिए संज्ञा विधान हुआ करता है वैसा यहां नहीं है । ये सभी शब्द अन्वयक है, सहेतुक हैं, और सप्रयोजन हैं । जैसा कि ऊपर के दिग्दर्शनसे समझमें पासकता हैं । इस तरह प्राप्तके दोनों विशेषणोंका इस कारिकामें स्पष्टीकरण किया गया है। फिर भी जिस तरह सष्टिकत स्वके सम्बन्धको लेकर ईश्वरके विषय में शंका खड़ी रहती है कि यह सर्जन वीतराग होकर पुनः सृष्टि रचनाके प्रपंच में क्यों पड़ता है उसी प्रकार यहाँभी शंका हो सकती कि जन वह आप्त सभी दोषोंमे रहित है, उसको न किसी प्रकारकी आशा ही है और न किसीसे रागद्वेष ही है फिर वह तीर्थप्रवर्तन में क्यों प्रवृत्त होता है ? इसका समाधान भी आवश्यक है। अतएव अन्धकार आगमेशित्व विशेषण का ही दृष्टांतपूर्वक अर्थान्तरन्यास अलंकारके द्वारा प्राशन अधिक सष्ट करके शंकाका समाशन करते हैं | अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥ ८ ॥ अर्थ--यह शास्ता आगमका ईश जिसका कि स्वरूप ऊपर की कारिकामें बसाया गया। बिना अपने किसी प्रयोजनके ही और बिना किसी अनुरागर्क ही भव्य पुरुषोंको हितका-धर्मका मोच मार्गका उपदेश दिया करता है ! शिल्पी-~-मादगिक-मृदंग बजानवाले के हाथका स्पर्श पाकर बजने वाला मृदंग क्या कुछ अयेक्षा रखता है ? प्रयोजन-संसारी प्राणी अधिकतर अपना कोई न कोई प्रयोजन रखकर ही कुछ भी काम करता हुआ देखा जाता है। यहां तक कि विना मतलब के कोई भी काम करना बुद्धिमत्ता का सूचक नहीं माना जाता । अतएव यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि "प्रयोजनमन्तरा मन्दोऽपि न प्रवर्तते " फलतः मोच मार्गके वक्ताका यहां जैसा कुछ स्वरूप ताया गया है उसको इष्टिमें लेनेके बाद तत्त्यरूपसे अपरिचित साधारण संसारी जीवोंको यह शंका या जिज्ञासा उत्पन होजाना स्वाभाविक है। जब वह आत शास्ता पूर्ण वीतराग है-सम्पूर्ण रागद्वष और मोह से सर्वथा प्रतीत हैं तब अदेश देनेके कार्यमें भी क्यों प्रकृति करेगा ? यद्यपि प्रयोजन अनेक तरह के हआ करते हैं फिर मी उनको दो भागोमें विभक्त किया जा सकता है। एक स्वार्थ और दूसरा परार्थ । इसमेंस कोई भी प्रयोजन वो उपदेश देनेमें प्राप्तका भी होना ही चाहिये । भन्यथा जिसतरह सष्टिरचना --विमा योजन मप भी प्रतिमहा किमा करता।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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