SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चंद्रिका टीका सातवां श्लोक कार्य अवश्य किया करती है । अतएव उनकी यह मी असाधारण विशेषता है कि वे दयालु और निर्दय दोनों शब्दोंक द्वारा कहे जाते हैं। इस तरह पाति और अपातिकम निमितक अतिशयोंसे युक्त परम पदमें जो स्थित है उनको परमेष्ठी कहते हैं। परंज्योति शब्द पुद्गल विपाकी कमों के निमित्तसे प्राप्त होनेवाली असाधारण लोकोत्तर महिमायोंका उपलक्षण है । जिसके कि कारण उनका परमौदारिक शरीर बन्धन संघात सथा समचतुरस्त्रसंस्थान बज्रर्षभनाराच संहनन अलौकिक स्पर्श रस गंध वर्ग आदिसे विशिष्ट हुआ करता है। ___ आप्त परमेष्ठीका यह अन्तरंग एवं रहिरंग स्वरूप कर्मसापेश होने के कारण स्वाभाविक है और सत्य है । तथा इस बातको स्पष्ट करदेता है कि इतनी योग्यतामोंसे जो संम्पत्र है वही बास्तवमें मोक्षमार्गका उप पक्का हो सकता है । इसके सिवाय आप्तामासोंक भयुक्त स्वरूपका निराकरण भी इन्हीं विशेषणोंके द्वारा स्वयं हो जाता है। किस किस विशेषणोंके द्वारा किस किस प्राप्तविषयक मिथ्या मान्यताका खएइंन होजाता है । यह सरं विद्वानाको ही समझलेना चाहिगे।। ___ साथ ही "देवागमनभोयानचामरादि विभूतयः" भादि कारिकाओंका आशय भी यहां यथायोग्य पटित कर लेना चाहिये । ऊपर प्राप्त के जो तीन विशेषण दिये गये हैं उनमें से सर्नज्ञता और भागमेशिता दोनोंका स्वरूप इसकारिका में बताया है । अतएव इस कारिकामें उल्लिखित उक्त दोनोंही विशेषणों को यहाँ विशेश्य मानकर सब विशेषण दोनों ही सरफ घटित करना चाहिये । क्योंकि दोनों में परस्पर अजहत संबंध भी है । सज्ञताक विना आगमेशित्व बन नहीं सकता और भागमेशित्व के बिना आप्तकी सर्वत्रता भी तीर्थकरता से शून्य हो जाती हैं। क्योंकि जो तीर्थकर है वे ही सजा को प्राप्त कर लेनेपर नियमसे आगमके ईश बनते हैं। तीर्थकर प्रकृतिका उदय उसके पहले नहीं हुआ करता । सीर्थ जो चलता है वह वास्तवमें तीर्थकर प्रकृतीके उदय सहित मकाही पलता है कि सभी सर्वज्ञोंका, यह वात पहले मी कही जा चुकी है ! अागमेशित्त्व का सम्बंध तीर्थकर कावासे हैं | अनए। दोनोंमें अजहत्सम्बंध बन जाता है। और इसीलिए अनादि मध्यांतता भी दोनों ही घटित होती है। जिसतरह अनादिमध्यांत सर्वान है उसी तरह भागमेशिल मी अनादिमध्यांत है। क्योंकि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान और उनका उपदिष्ट प्रागम अनादिकालसे हैं और अनन्त कालतक रहेगा । इन दोनोंकेही समत रहने में एक दिनका भी विच्छेद नहीं पत्ता न कभी.पहा है और न कभी पडेगा ! हां क्षेत्र की अपधा पर संभव है कि इन दोनोंका अस्तित्व कमी किसी क्षेत्र में पाया जाय और कमी किसी क्षेत्रमें नहीं पाया जाय । परन्तु काल की अपेक्षा इनमें कमीभी अन्तर नहीं पड़ता। दोनों की ही सबा बनी रहती है। देहली दीपक न्याय से बाममीमांसा का माम्य पासासी ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy