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रत्नकरएखश्रावकाचार
शुग गिनाये हैं उनमेस सिद्धांके आठकों के अभावस प्रकट होनेवाले आठगुणोंमें मोहके क्षयसे व्यक्त होनेवाला गुण सम्पन्न नामसे बताया है। परन्तु अर्हत् परमेष्ठीके गुणों में से अनन्तचतु
ट्रयमें मोहके अभावसे उद्बा होनेवाला गुण अनंत सुख नामसे बताया है। इस तरहकी अवस्था __ में एक ही कमेके प्रभाव से प्रकट होनेवाले गुणको एक हो नागसे न कहकर दो भिनर नामोंसे
कहना सर्वथा निरपेक्ष या निष्कारण नहीं कहा जा सकता या नहीं माना जा सकता। वह अपेक्षा या कारण यही है कि अरहन्त परमेष्ठींक मोहका अभाव तो सर्वथा होगया है परन्तु साथ ही वेदनीयका उदय भी बना हुआ है, उसका अभी सर्वथा अभाव नहीं हुआ है। अतएव उसके विपाकसे लोकमें सुखशब्दके द्वारा कही जानेवाली पुण्य सामग्री भी उनको पाकर प्राप्त होती है। यद्यपि मोहके अभावके कारण उसका उन्हें वेदन नहीं हुआ करता । पुष्पवृष्टि सिंहामन आदि भोगीपभोगसामग्रीसे उनका स्पर्श भी नहीं हुआ करता । भोजन आदिमें प्रवृत्तिकी तो बात ही क्या है ? अतएव आप्त परमेष्ठीका यह अनन्त सुख वेदनीय कर्मके उदयकी अपेक्षाके साथ२ मोहकमके अभावकी भी अपेक्षा रखता है । यही कारण है कि यह सुख अनन्त एवं मर्वोस्कृष्ट मानागया है । क्योंकि वास्तविक सुख त्याग या उपरतिकी अपेक्षा रखता है और उसकी मात्रा ज्यों२ अधिकाधिक होती जाती हैं त्या र सुखका प्रमाण भी बढ़ता जाना है। अरहन अवस्थामें यह सर्वोत्कृष्ट मुख प्रकट हुआ करता है सहचारी पुण्यविपाककी अपेक्षाको प्रधान मानकर सम्यक्त्वको ही सुख शब्दसे कह दिया गया है।
. परमाजातिका सम्बन्ध गोत्रकर्मकी अपेक्षा रखता है । आगममें चार तरहकी जातियां बनाई है।----परमा विजया ऐन्द्री और स्वा । परमा जाति तीर्थकर भगवान्की हुआ करती है। अषातिकर्मोमेंसे गोत्र कर्मके निमित्तसे पाई जानेवाली उनको यह असाधारण विशेषता है। इसी तरह आयुके विषयमें समझना चाहिये । उनकी श्रायु सर्वथा अनपवयं ही हुश्रा करती है। उपमर्ग विष वेदना रक्तक्षय आदि कारणांसे उनकी आयुका अपवर्तन नहीं हुआ करता । तीर्थकर नामकमके निमित्तसे उनकी प्रभुता लोकोत्तरर हुआ करती है। जिसके कि कारण उनका शासन अजय्यमाहात्म्यवाला, समस्त कुशासनोंका निग्रह करनेवाला और भव्यजीवोंको संसारके समस्त दुःखों एवं उनके कारणों में उन्मुक्त होनेके असाधारण उपायको बतानेवाला हुआ करता है जिसका कि पालन कर वे स्वतंत्र अनन्त अश्निरयर ऐकान्तिक अनुपम अलौकिक मुखके उपभोक्ता हो जाया करते हैं । कारिकामें प्राप्तका सार्व विशेषण जो दिया है वह भी इस तीर्थकर प्रकृतिको लक्षमें रखकर ही दिया है ऐसा मालुम होता है। क्योंकि उसका बंध जिस अपायविचय नामक धर्मध्यान विशेषके द्वारा हुआ करता है वह सर्वोत्कृष्ट दयारूप परिणामका प्रकार है । यद्यपि सर्वज्ञ होजानेपर सभी सराग भावोंके छूट जानेसे दया परिणाम भी नहीं हुआ करता । किंतु दयाभावसे बंधी हुई तीर्थकर प्रकृति उदयमें अानेपर प्राणीमात्रके उद्धारका
मादिपुराण । २.--तिस्थयराण पहा आदि ।