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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार चारों ही शब्दों का यहां पर समाहार द्वन्द्व समास करके हेत्वर्थ में पंचमीका प्रयोग किया गया हैं । समाहार द्वन्द्व समासके विषय में यह कहा जा चुका है कि समासगत द्रव्य गुण क्रिया विशेषण और साहित्य प्रधान या विशेष्य माना जाता हैं। जिस तरह ग्राम पीपल नीम वट जामुन आदि अनेक तरहके वृक्षोंके विशिष्ट समूहको वन कहते हैं, एक दो वृक्षोंको वन नहीं कहते । यद्यपि कदाचित् एक जाति के वृक्षों का भी बडा समूह हो जाने पर वन कहा जा सकता है। किन्तु इसकेलिये भी उस जातिके वृक्षोंका यथेष्ट प्रमाण में एकत्र होना आवश्यक है फिर भी जिस तरह एकको समूह नहीं कह सकते और समूहको एक नहीं कह सकते उसी तरह प्रकृतमें भी भयादिकर्मे किसी एकको समाहार नहीं कहा जासकता और समाहारको भयादिकमेंसे किसी एक रूप नहीं कहा जासकता । इसका तात्पर्य यह होता है कि जहां तक इन चारोंकेही तीव्र उदय अथवा उदीरणाकी योग्यता — ऐसी योग्यता कि जिसके निमित्तसे इनमेंस किसी भी विभाव परिणामके द्वारा सम्यग्दर्शनको मलिन करनेवाली प्रवृत्ति हो सकती हैं, बनी हुई है वहां तक वह समाहार भी माना जायगा जो कि वास्तव में सम्यग्दर्शन की मलिनता का अन्तरंग कारण है जिसका कि दर्शनमोहनीय कर्मकी सम्यक्त्व प्रकृति के नामसे बोध कराया जा सकता अथवा जो अनन्तानुबन्धी कपाय चतुष्टयके रूपमें कहा या माना जा सकता है । मतलब यह कि उक्त मल दोषों और इस कारिकाके द्वारा जिसका परिहार बताया गया है वह दोष भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी अवस्थामें ही संभव है, न कि औपशमिक एवं क्षायिक सम्यक्त्वकी अवस्था में | जैसाकिर धवला - गोमट्टसार आदिसे जाना जासकता है। "च" शब्द पूर्वोक्त मलदोषोंके हेतुओंका भी सम्बन्ध बताता है । क्योंकि यहाँपर "च" शब्द अपि — भी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जिससे अभिप्राय यह निकलता है कि उक्त कारणों से तथा भयादिकसे भी कुदेवादिकोंको प्रणाम आदि न करे । अतएव यह "च" शब्द इस कारिकामें बताये गये भयादिक हेतुओं का पूर्वोक्त हेतुओं के साथ संग्रह — सकलन - समुच्चयको स्वष्ट करदेता है । कुदेवागमलिङ्गिनाम्— सम्यग्दर्शन के विषयभूत प्राप्त आगम और तपोभूतका स्वरूप पहले बताया जा चुका है । उनका लक्षण या वह स्वरूप जिनमें नहीं पाया जाता अथवा जिनमें तद्विरुद्ध लक्षण या स्वरूप पाया जाता है व ही कुदेव कदागम और कुलिङ्गी हैं। star इनके साथ प्रयुक्त होनेवाला "कु" शब्द दर्शन मोहनीयके उदयरूप मिथ्यात्व परि खामके अन्तरंग भावके सम्बन्धको सूचित करता है। जो इस मिथ्याभावस दूषित हैं उनको कुदेश कदागम और कुलिङ्गी समझना चाहिये ऐसा अर्थ करने पर जो आप्ताभास हैं, श्रागमाभास हैं, तथा पाखण्डी में वे सभी प्रथा एवं विनयके विषय होजाते हैं । १- भयश्च भाशा च स्नेहस्थ तेपां समाहारः भयाशास्त्र हलीयम्, तस्मात् । २-तत्थ खइयसम्म इट्टी पण कमीइषि मिल गई, कुण संदेहं मिभवं दशा बम्हजायदे। एसो चेव उवसमसम्माइट्ठी | सन् प्ररूपणा पृ. १७१ । वयहिं विहिं व इदभय आणि हिंरूवहिं । बीभजुगु वाहिँ ये तेलोच णवि - बालेजो ।।६४७।। गो.जी. तथा - "रुमकरेाक्तिसूचिभिः । जातु क्षायिकसम्यक्त्वो न लुभ्यति गिनिश्चलः ।। ६६४
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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