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________________ चन्द्रिका टीका तीमर्वा श्लोक ग्दर्शन भी रोगरूप अनीचारोंसे रहित होकर पथ्यरूप प्रवृत्तियों-उचित आहार विहार अर्थात अन्याय और अमदय भक्षणसे रहिन आचरणोंके द्वारा अपने पाठोही अवयवोंमें पूर्ण हो जाता है । इसके बाद तीन मूढनाओंका निषेध करके प्राचार्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको स्थिर रखने के लिये यह भी आवश्यक है कि उसे अनायतनोंकी रुचि एवं श्रद्धासे भी दूर रक्खा जाय । ध्यान रहे तीन महताओंके कथनसे छहों अनायतनों का सम्बन्ध आजाता है। ____ अन्तमें आठ मदोंके परित्यागका वर्णन करके यह बात भी स्पष्ट करदी है कि पापकर्म की मन्दता या पुण्य कर्मके उदयसे लब्ध वैभव के व्यामोहवश धम-सम्यग्दर्शनादिकी अथवा तद्वान् व्यक्तियों की अवहेलना करना अपने ही धर्मका विनाश करना अथवा उसको मलिन बनाना है। क्योंकि आठ प्रकारके मदोंमें कुछ तो ऐसे हैं जो कि प्रतिपक्षी पापकम-ज्ञानावरख अन्तराय आदिके वयोपशमके रूपमें मन्दोदयकी अपेता रखते हैं और कुछ पूज्यता मल जाति आदि ऐसे हैं जो पुण्य कमके उदयविशेपकी अपेक्षा रखते हैं । सम्यग्दर्शनके २५ मलदीप प्रसिद्ध हैं उन सबकी परिहार्यताका परित्रान इस विविध वर्णनसे हो हो जाता है फिर ऐसा कोई विषय शेष नहीं रहना जिसके कि परित्याग लिये पुनः वर्णन की आवश्यकता हो । प्रा एक बहकारीका अपना क्या विशिष्ट प्रयोजन रखनी है ? अथवा पूर्व वर्णनका ही यह उपसंहारमात्र है किसी नवीन भिम विषयके वानका प्रयोजन नहीं रखती इस तरहका प्रश्न अथवा जिज्ञासाका भाव उपस्थित होना सहजसंभव है। मालुम होता है कि इसीलिये प्राचार्य भगवान उपस्थित हो सकनेवाले इस प्रश्न अथवा जिज्ञासाके भाव का उचित एवं संगत समाधान करदेना चाहते हैं। वे इस कारिकाके द्वारा गत विषयोंका उपपंहार करते हुए उसमें और भी जो कुछ विशेष उल्लेख करना आवश्यक है उसको भी स्पष्ट करदेना चाहते और साथ ही कुछ नवीन परिहार्य विषय का भी निर्देश करदेना चाहते हैं। इस तरह दोनों ही विषयों पर प्रकाश डालना इस कारिकाका प्रयोजन है । जैसा कि आगेके वर्मनसे मालुम हो सकेगा। शब्दोंका सामान्य विशेष अर्ध भयाशास्नेहलोभात्--इस पदमें आये हुए शब्दोंका सामान्यतया अर्थ प्रसिद्ध भौर स्पष्ट है। भयका अर्थ "डर" यह लोक बिदित है किन्तु शंका अर्थ में भी इस शब्दका प्रयोग होता है । इसलोकभय परलोकभय आदि विषय भेदकी अपेक्षा इसके सात मेदोंका उमेश किया गया है। यह मुख्यतया दो अन्नरङ्ग कारणोंपर निर्भर है।--भयनामक नोकषायकी उदारवा तथा वीर्यान्तराय कर्मकी उदीरणा अथवा तीब्रोदय ।। भागेकेलिये किसी विषयको प्राप्त करनेकी इच्छा रखना आक्षा करना माल है। स्नेहका सम्बन्ध राग कषायसे है। प्रेम, अनुराग, प्रीति आदि स्नेहके ही भेद अथवा पर्याय हैं। बर्तमानमें किसी रस्तु के प्राप्त करने की उस्कट भावनाको लोम शम्दते वहां बताया ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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