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________________ रतकरण्यभावकाधार जिस तरह रक्तमें यह सामर्थ्य नहीं है कि जलके समान वस्त्रको शुद्ध कर सके, इसी प्रकार पुण्य सम्पत्तियोंमें यह योग्यता नहीं है कि परम संवर निर्जरा और निर्वाणकी सिद्धिमें वह सम्यग्दर्शनका कार्य कर सके। अतएव पूर्वोक्त बाठों ही कारणोंका गर्व करना और उससे सम्यग्दर्शन भूषित धर्मात्माओंकी अवहेलना करना अनुचित ही नहीं स्वयंको धर्मसे च्युत कर लेना है। क्योंकि जो जिस गुणको प्राप्त करना चाहता है वह उसकी और उस गुणवालेकी अवज्ञा करके प्राप्त नहीं कर सकता । उसका विनय करके ही वह उसको प्राप्त कर सकता, स्थिर रख सकता, तथा वृद्धिको प्राप्त कर सकता है। इस तरह यहांतक सम्यग्दर्शन के विधिनिषेधात्मक पाठ अंगोंका वर्णन करके स्व और परमें उसकी निरतीचारता तथा अविनाभावी अन्तरंग बाथ प्रवृत्तिका स्वरूप बताया, उसके बाद तीन महतारोंका निषेध करके अनायतनोंकी सेवासे संभव दोषों-मलिनताओं-अटियोंसे उसकी रक्षाकरनेका उपदेश दिया, तदनन्तर यह बात भी स्पष्ट करदी गई और वैसा करके सावधान किया गया कि यदि पुण्यकर्मके उदय अथवा पापकर्मकी मन्दताकै कारण प्राप्त वैभवके पथमें पदकर उसके व्यामोहवश तुमने धर्म और धर्मात्माओंकी अवहेलना की तो निश्चय ही तुम स्वयं ही अपने धर्म और उसके फलसे-अनन्त कल्याणके कारण और उसके फलसे वंचित रहजागोगे। किन्तु अब प्रश्न यह होता है कि कार सामग्दनको रत्ना ए हलताकेलिये जो कुछ बताया गया है उतना ही पर्याप्त है अथवा उसके लिये और भी कुछ मावश्यक कर्तव्य शेष है। इसके उत्तरमें आगेकी कारिका द्वारा आचार्य बताते हैं कि सम्पग्दर्शनकी विशुद्धि पूर्णता तमा वास्तविक सफलताकेलिये यह भी आवश्यक है कि भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रणामं विनयं चव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ॥३०॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टियों को चाहिये कि भय भाशा लेह और लोमसे कुदेव कदागम और कलिङ्गियोंको प्रथाम तथा विनय न करें। प्रयोजन-शुद्ध सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए प्राचार्यश्रीने सबसे प्रथम उसके पाठ अंगोका वर्मान किया है जिसमें निःशक्तिादि चार निषेवरूप अङ्गोंके द्वारा उसकी निरसीचारताका होना पावश्यक बताया है। इसके सिवाय चार विधिरूप अंगोका वर्शनकरके इस पातको स्पट करदिया है कि सम्पादष्टि की अंतरंग तथा बाह्य प्रवृत्ति किस तरहकी हुमा करती है अथवा किसतरहकी होनी चाहिये । इसी कथनसे यह भी व्यक्त कर दिया गया है कि स्व और परके साथ होनेवाला या किया जानेवाला वह कौनसा व्यवहार है जिसको कि देखकर उसके अविनामावी सम्यग्दर्शन के मस्तित्वका अनुमान किया जा सकता है। जिस प्रकार रोगनिहरण और स्वस्थतासम्पादन को उषयमें रखकर प्ररूपित भायुर्वेद शास्त्र पाठ अंगोंमें पूर्ण होता है। उसीप्रकार यह सम
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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