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________________ चन्द्रिका टाका तीसवा श्लोक इस वाक्यमें इतरेतयोग? द्वन्द समास है । अतएव यहां पर साहित्य प्रधान नहीं है, द्रव्य प्रधान है । इसलिये कुदेवादिकमें से कोई भी क्यों न हो; एक दोहों अथवा तीनों ही हो उनको प्रणाम या विनय करनेपर सम्यग्दर्शन मलिन माना ही जायगा यह बाक्य प्रणाम या विनयरूप क्रियाका कर्म है। किन्तु जहां सम्बन्धमात्रकी विवक्षा होती है वो वहां कर्ममें२ षष्पी भी होजाया प्रणाम विनयं चैव-दूसरेको अपनेसे बड़ा या महान् मानकर उसकी महत्ताको प्रकट करते हुए अपना शिर झुकाकर स्वयंकी नम्रताको प्रकट करना प्रणाम माना जाता है । और हाथ जोसकर अथवा वचन द्वारा प्रशंसा करके यद्वा उच्चासन देकर एवं अनुगमनादिके द्वारा आदर सरकारका भाव प्रकट करना विनय कहा जाता है। शुद्धदृष्टयः-जिनका सम्यग्दर्शन पूर्वोक्त दोषों-शंका आदि पाठ दोष तीन मूहता और पाठ मदसे रहित है वे शुद्धष्टि हैं ऐसा समझना चाहिये। __ तात्पर्य यह कि आगममें विनयके पांच भेद बताये हैं जिनका कि नामनिर्देश पहले किया जा चुका है। उन पनि भेदों को सामान्यतया लौकिक और पारलौकिक इस तरह दो भागोंमें विभिक्त किया जा सकता है । लोकाश्रय अथोश्रय कामाश्रय और भयाश्रय इन चार भेदोंको विनयके लौकिक भेदमें परिगणित किया जा सकता है। क्योंकि ये भेद ऐहिक-सांसारिक विषयोंसे सम्बन्धित हैं। इन चारोंके सिबाय एक मोक्षाश्रय विनयका भेद ही ऐसा है जिसका कि विषय वास्तवमें पारलौकिक-मोक्षमार्गसे सम्बन्धित है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गरूप होनसे वस्तुतः पारलौकिक है। अतएष उसकी शुद्धि केलिये अिन मल दोषोंका परित्याग करनेका आचार्योने उपदेश दिया है उसमें भी उनका लक्ष्य मुख्यतया पारलौकिक विनयकी तरफ ही रहा है यह भलेप्रकार समझ में आसकता है । फलनः यहां पर भी ऊपर जिन मूढ़ताओं श्रादिके छोड़नेका भगवान् समन्तभद्रस्वामीने जो सदुपदेश दिया है वह भी मुख्यतया मोबाश्रय विनयकी दृष्टि से ही दिया है यह कहनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती । ऐसी अवस्थामें चार ऐहिक विनयभेदों के विषय सम्बन्धको दृष्टिमें रखकर शंका हो सकती है कि सम्यग्दृष्टिको ये चार प्रकारके विनय कर्म भी करने चाहिये या नहीं ? अथवा इन विनयों के करनेपर भी सम्यक्त्व निर्दोप रहता या रहसकता है या नहीं ? इस शंकाका परिहार करनेकेलिये ही भाचायं प्रकृत कारिकाके द्वारा बताना चाहते हैं कि प्रणाम और विनय क्रियाका विषय सम्बन्ध कुदेवादिकके साथ है । अत एव यदि कुदेवादिकको प्रणाम आदि किया जाय तो सम्पग्दर्शन शुद्ध नहीं रहसकता । ऐहिक विनय कोंके साथ कुदेवादिकका वस्तुतः कोई नियत सम्बन्ध नहीं है। उनको प्रणाम आदिका करना दो तरहसे ही संभव हो सकता है। एक तो धार्मिकपारलीकिककल्याणकी कामनासे मक्तिवश उनको नमस्कार आदि करना, झरा अन्तरंगमें -देवश्च आगमश्च लिंगो च, देवागमलिनिनः । कुत्सिता देवागमलिगिनः कुदेवायमलिोगनः, संपाम् । २-"कर्मादीनामपि संवन्धमाविषदायां षष्ट्यव" । सि० कौ० १० १४६ /
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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