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________________ ०६६ ानर भक्ति न रहते हुए भी किसी के अनुरोधसे अथवा बिना किसी प्रेरणा के स्वयं ही अपने ऐहिक सम्बन्वोंको अच्छे एवं अक्षुण्य या निर्वाध बनाने रखनेके हेतुसे विवश होकर वैसा करना । इनमें से पहला प्रकार तो मिध्यात्वको ही सूचित करता है । दूसरा प्रकार सम्यग्दर्शनकी कमजोरी या मलिनताका कारण भी हैं और कार्य भी है। क्योंकि जिसका सम्यग्दर्शन दुर्बल हैं यदा समल है वही इस तरहसे कुदेवादिककी वन्दना आदि में प्रवृत्ति कर सकता है। तथा इस तरह की प्रवृति करनेवालेके सम्यग्दर्शनमें मल उत्पन्न होता और उससे उसकी शक्ति भी क्षीण होजाया करती है। सम्यग्दर्शनको समल बनानेवाली यह प्रवृत्ति प्रायः करके चार बाह्य हेतुओं पर निर्भर है जिनका कि प्रकृत कारिकाके प्रथम चरण में उल्लेख किया गया है । अर्थात् मय आशा स्नेह और लोभ | मतलब यह कि राजा आदिके भगये, भविष्य में प्राप्त होने वाले अर्थ- धन ऐश्वर्य आदि की इच्छासे, मित्रादिके अनुराग से, एवं वर्तमान में उपस्थित सम्पत्ति की गृद्धिवश यदि कोई सम्यग्दृष्टि कुदेवादिकको प्रणाम आदि करता है तो उसका सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं रह सकता । अवश्य ही वह मलिन होजाता हैं । राजा बन्दना करता है, हम यदि इनकी वन्दना नहीं करेंगे तो राजा रुष्ट होकर हमारा अनर्थ कर सकता है। हो सकता है कि हमको अधिकार से वंचित करदे अथवा हमको आपति में पटक दे या दण्डित करे इस तरहके किसी भी भयसे कुदेवादिककी वन्दना करना । आगे जो हमारा काम बननेवाला है वह यदि इनकी बन्दना आदि नहीं करेंगे तो नहीं बनेगा, इनके उपासकों आदि के द्वारा हमारा वह काम विगाडा जा सकता है, अथवा हमारे अभीष्ट योजनकी सफलता में बाधा पडसकती है. यह विचार करके देवादिकको प्रणाम आदिक करना | ये जितने हमारे सम्बन्धी हैं--जातीय बन्धु हैं, अथवा हमारे सहचर या परिकरके लोग हैं, वे सभी इनकी पूजा भक्ति उपासना करते हैं, इनके साथ रहकर में भी यदि इनकी बन्दना आदि नहीं करूंगा तो अच्छा नहीं लगेगा, ऐसा विचारकर अथवा बन्धु बान्धवोंके स्नेहसे या संकोच में पड़कर उनकी वन्दना आदि करना । अथवा जैसी प्रवृत्तिका प्रचारकरना कराना ! इस समय हमारे पास जो सम्पति है वह हमारी कमाई हुई नहीं है, हमारे पूर्वजों की कमाई या दी हुई भी नहीं है हमको जो यह मिली हैं या इसका अधिकार मिला है वह ऐसे ही लोगों की है जो कि इनके उपासक थे या है, अब हम यदि उनके विरुद्ध चलते हैं या उनके नियमका पालन नहीं करते हैं तो यह सम्पत्ति हमारे पास नहीं रह सकती, यद्वा नियमानुसार हम इसके उचराधिकार से वंचित हो जा सकते हैं, इस तरह प्राप्त सम्पत्तिकी गृद्धिवश कुदेवादिककी भक्ति आदि करना । इस तरह ये चार प्रकार हैं जो कि मुख्यतया तीव्र कषायके परिणाम हैं। इनमेंसे किसी भी प्रकारसे कुदेशदिको प्रणामादि करनेपर सम्बम्दर्शन मलिन होता है। क्योंकि कुदेवादिक न तो
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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