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पत्रिका टीका नीसवां भोक राज्यके ही अधिकारी हैं न उनके साथ कोई जातीय सम्बन्ध है न अर्थपुरुषार्भक ही वे सम्मन्धी या साधक हैं। और न उनसे अन्य किसी प्रकारके अनर्थ अपयश या अपाय होनेकी शंकाका ही कोई कारण है । फिर भी यदि उनको बन्दना ग्रादि कोई सम्परराष्टि करता है जैसाकि उपर बताया गया है तो अपनी ही पायक तीव परिणालि अया तब सार होनेवाली दुर्गलता ही उसका अन्तरंग मुख्य हेतु माना जा सकता है। यदि कोई गृहस्थ है तो वह अपने धर्म अर्थ काम या यशसे सम्बन्धित व्यक्तियोंका यदि वे कदाचित् मिथ्याष्टि भी हों तो भी उनका कदाचित ऐहिक विनय एवं यथोचित सम्मान स्वयं सम्यग्दृष्टि होकर भी कर सकता है । जो कि पूर्वोक्त चार प्रकारों में बताये गये हैं। परन्तु जिनके साथ इस तरह का कोई भी सम्बन्ध नहीं है ऐसे कुदेव गुरु या पाखण्डियोंका विनय करनेमें अपनी अन्तरंग कमजोरीके सिवाय दूसरा कोई भी अन्य उचित कारण नहीं है। और ये कमजोरी सामान्यतया चार प्रकारको ही संभव है जो कि यहां बताई गई हैं--भय आशा स्नेह और लोभ ।
सम्यग्दर्शनका लक्षण-वर्णन करते समय श्रद्धानरूप क्रियाके तीन विशेषन दिये हैंत्रिमहापोह अष्टांग और अस्मय । इनमेंसे अष्टांग विशेषणका आशय भयादिके कपनसे आजाता है क्योंकि भय आशा स्नेह और लोभ क्रमसे शंका कांक्षा विचिकित्सा और मुहरष्टिके ही रूपान्तर या प्रतीकरूप है। अतएव इस एक विशेषणका अभिप्राय कारिकाकै प्रथम वायसे ही स्पष्ट होजाता है। फलतः "शुद्धदृष्टयः" के अर्थ में शेष दो विशेषणोंका लक्ष्य रखना ही उचित प्रतीत होता है और इसीलिये इस शब्दकी जो इस प्रकारसे निरुक्ति की गई है कि "मत्रयमदाटकम्यो मलेभ्यः शुद्धा-मृष्टा दृष्टिर्येषाम् ते शुद्धदृष्टयः" सर्वथा संगत और विचारपूर्ण है। ____ ऊपर जिस चार तरहके लौकिक विनयका उमेख किया गया है उसके साथ कारिकोक्त भयादिक चार पदोंका सम्बन्ध स्पष्ट है। क्योंकि भयशब्दसे भयाश्रय विनयका, पाशाशम्दसे लोकाश्रय विनयका, स्नेह शब्दसे कामाश्रय विनयका और लोम शब्दसे प्रश्रिय विनयका अभिप्राय व्यक्त हो जाता है।
प्रकृत कारिकामें तीन पद मुख्य हैं-हेतुपद (भयाशास्नेहलोभात् ) कर्मपद (देवागमलिगिनाम्) क्रियापद (प्रणाम विनयं)। तीनों ही पदोंपर एक दृष्टि रखकर रिचार करनेसे मालूम होसकता है कि इन तीनोंही विषयों के मिलनेपर सम्यग्दर्शनकी अशुद्धता ससे अधिक संभा है किन्तु इनकी विकलतामें भी सम्यग्दर्शन-मलिन ही होसकता है । यह दूसरी बात है कि कारत. वैकम्पके अनुसार दोषरूप कार्यमें भी न्यूनाधिकता पाई जाय।
हम जैसा कि कारिका नं० २३ की व्याख्यामें लिख चुके हैं उसी प्रकार यहाँपर भी विचार किया जासकता है । तथा विचार करनेपर मालूम हो सकता है कि इन तीनों की पाता और विकलताको अवस्था में सम्यग्दर्शनकी अशुद्धि भी समानरूपमें न होकर न्यूनाधिक भी हो सकती
१-कारिका न०!
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