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________________ रत्नकर एडभावकाचार जो कुछ कहा था- सर्वथा सत्य है। उसने अपना रूप प्रकट किया, पठनमात्र से सिद्ध होनेवाली विद्याके fears दिव्य वस्त्रालंकार प्रदान किये । तथा पर्याप्त प्रशंसा करके और सब वृतान्त 1 कहकर अपने स्थानको चला गया। उद्दायन भी श्री वर्धमान भगवान् के पादमूलमें दीक्षा लेकर घोर सपश्चरण करके निर्वाणको प्राप्त हुआ। प्रभावती रानी आर्थिका होकर उपके प्रभाव से पांच स्वर्ग में देव हुई । उद्दायन विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है--- बालवृद्गदरलानाम् सुनीनौद्दायनः स्वयम् । भजन्निर्विचिकित्सात्मा स्तुतिं प्रापत् पुरन्दरात् ॥ रेवती रानी । पाराच्यदेश के दक्षिणमधुरा' नामक नगर में एक श्रीमुनिगुप्त नामके आचार्य रहते थे। जो अवधिज्ञानी श्रष्टाङ्गमानिमित्त शास्त्रके ज्ञाता और आश्चर्योत्पादक तपश्चरण करनेवाले थे । विजयार्ध पर्वतकी दक्षिणश्रेणीके मेघकूट नामक नगरका स्वामी चन्द्रप्रभ जिसकी कि रानीका नाम सुमति था; अपने पुत्र चन्द्रशेख को राज्य देकर उक्त आचार्य महारा तके चरणोंमें चुनक हो गया। फिर भी उसने आकाश में गमन करनेमें सहायक कुछ विद्यार्थीका परिग्रह रक्खा था । एक दिन उसने उत्तर मथुराको बन्दनाकेलिये जानेके अभिप्रायस श्राचार्य महाराजसे आज्ञा लेकर पूछा कि वह किसीसे कुछ कहना है क्या ? आचार्य ने कहा— सुत्रतमुनिराजको हमारी बन्दना और वरुण महाराजकी महारानी रेवतीस आशीर्वाद कहदेना । खुनकके और भी किसी कामके लिये पुनः २ पूछनेवर आचार्य महाराज अन्य सन्देश न देकर केवल इतना ही कहकर कि "अधिक विकल्प क्यों करते हो ? वहां जानेपर सब स्पष्ट होजायगा ।" चुप होनए । بری लक्को विकल्प था कि वहांके सुप्रसिद्ध ग्यारश्अंगके पाठी मव्यसेन मुनिके लिये कुछ भी सन्देश क्यों नहीं ? अस्तु चुल्लक ने उत्तर मथुरामें आकर मुक्त मुनिराजका विशिष्ट वात्सल्य देखा और वन्दना सन्देश देकर सोचा कि अब भव्यसेनकी परीक्षा करनी चाहिये । और विद्यार्थी 1 का वेश रखकर भव्यसेनके पास पहुंचा। भव्यसेनने बडे स्नेहसे पूछा । —बढो ! कहांसे भाए हो ? क्षु० --- पटना | भव्य ० – किसलिए १ चु० – अध्ययनार्थ । भध्य क्या पढना चाहते हो ? [० --- व्याकरणं । भन्यसेन- अच्छा, मेरे पास रहना चाहते हो ? सु० जी हां १ मध्यसेनने यह सुनकर उसको अपने पास रख लिया । और थोडी देर बाद कहा ! बटो 1 शोच का समय होगया है, इम मैदानमें जा रहे हैं। चलो, कमण्डलु लेलो । घुल्ल कने जिधर वे गये उधर ही हरित अंकुरोंसे भूमिको व्याप्त कर दिया। यह देखकर भव्यसेन रुका । मुलकने पूछा- भगवन् ! यकायक आप रुक क्यों गये । भच्यसेन- आगममें ये स्थावर नामके जीव बताए है । छुक- महाराज रलोंकी किरयोंके समान ये भी पृथ्वीके विकार है। ये जीव नहीं हैं। भव्यसेन यह कहकर कि ठीक है, उसी परसे चलागया और शौचके बाद थोड़ी दूर वर्तमान नाम मदुरा ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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