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________________ चंद्रिका टीका उन्नामवा बीमो श्लोक इसी जिनेन्द्रदत्त सेठ के पुत्र अहहन के साथ विवाह करने को भी कहा, यह भी कहा कि वह प्रत तो उपहास दिलाया था मो भी केवल आठ दिन के लिये ही। परन्तु अनन्तमति तयार नहीं हुई। यह यह कहकर कि "धर्म में उपहास कैसा ? मैंने थोडे ही समयमें संसारका सब स्वरूप समझ लिया है, मैं अब उसमें पड़ना नहीं चाहती।" कमलश्री आर्यिकाके पास जाकर दीक्षित होगई। कैथल ईसीमें लिये हुग चतुर्थ बनका अत्यन्त दृढताके साथ पालन करके अनन्तमति सपके प्रभाव से बारहवें स्वर्गमें जाकर देव हुई । अत एव कहागया है किहासापितश्चतर्थेऽस्मिन् व्रतेऽनन्तमतिः स्थिता । कृत्वा तपश्च निष्काङमा फल्पं द्वादशमाविशत् ।। उद्दायन। एकदिन तीन ज्ञानका धारक एक ही भवः धारण करके मोक्षको जानेवाला सौधर्मेन्द्र अपनी सभामें सम्पूर्ण देवोंके सामने सम्यग्दर्शनके गुणोंका वर्णन करते हुए बोला कि इन्द्रकच्छ नामक देशमें माया नामकी एक नगरी है जिसका किमरा नाम रोरकपुर है । वहाँ उद्दायन नामका राजा राज्य करता है । जिसकी कि पटरानीका नाम प्रभावती है। उस उदायन के समान इस समय मर्त्यलोकमें निर्विचिकित्सा अंगमें और कोई नहीं है । इन्द्रके दास इतनी अधिक प्रशंसाको सहन न करके वासचनामका देव मनुष्यचेत्रमें आया ओर अत्यन्त विनावनां शरीर बनाकर मुनिक रूपमें हारके समय उद्दायनके घर पहुँचा । राजा घरकी तरफ मुनिको आता देखकर प्रतिग्रहकेलिये आगे बढ़ा। उसने देखा कि मुनि अत्यन्त वृद्ध, महसे दुर्गन्ध आरही है शरीर दाद खाज खरजवा फोडा फुन्सिगेंसे भरा पडा है शरीर रूग्ण है, लार नाक बह रहे हैं लाखोंसे दीड निकल रहे हैं, मातकपर मक्खियां भिनभिना रही हैं और उनसे चला जाता नहीं है। राजा यह सोच करके कि संभवतः अभी गिर पडेंगे, रंचमात्र भी ग्लानि मनमें और व्यवहारमें न लाकर केशर आदिसे सुगन्धित अपने भुजबरद्वारा मुनिको भोजनालपमें लाया। उच्वासनपर विराजमानकर अपने हाथसे पादप्रक्षालन श्रादि क्रियाकी और विधि पूर्वक योग्य आहार दिया। मुनिवेशी देवने यह सोचकर कि अभी परीक्षा अधूरी है 'भीजनके अंत' में जोरका शब्द करते हुए जितना भोजन किया था सबका सब इस तरहसे रमन करदिया कि राजा के ऊपर भी प्रहा। फिर भी खूब जोर२ से शब्द करते हुए वार२ वमन करने लगा विक्रियाजनित मक्खियोंका समूह भी चारों तरफ और राजाके ऊपर भी उड़ने लगा । सब परिकरके लोग यहां से चले गये ! किंतु राजाने कहा- हाय । मैं बडा मन्दभाग्य हूँ । मेरसे ठीक सेवा न हो सकी, मेरे दिये विरुद्ध आहारके कारण मुनिराजको कितना कष्ट हुआ है, आदि अपनी निन्दा करते हुए पवित्र जलसे. मुनिका शरीर अपने हासेि धोया और स्वच्छ वहमन्य वससे पोछकर साफ किया । सनिवेशी बांसवदेवके हृदय में अब यह विचार हुआ कि सचमुचमें परगुणग्रहणाग्रही इन्द्रने
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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