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रलकर एडभावकाचार
................. और कहा कि इसमें केवल भगवान् ही नहीं अपितु हे पिताजी ! पाप और मा भी साक्षी हैं। धीरे२ यौवनको पाकर अनन्तमतिका सौन्दर्य अपूर्व होगया । एक दिन वह सहेलियों के साथ चैत्रमें झूला झूल रही थी कि इसी समय उधर से विजयाधकी दक्षिण श्रेणीक किमरगीत नगरका स्वामी कुण्डलमण्डित नामका विद्यावर अपनी धर्मपत्नी सुकेशी के साथ निकला । वह भनन्तमतिको देखकर उसपर आसक्त हो गया। उसका अपहरण करनेके अभिप्रायसे 'मुकेशी बाधक न बने । इसलिये उसको घर वापिस छोड़कर आया और अनन्तमतिका अपहरण कर
आकाश मार्गसे जा रहा था कि सुकेशी भी सन्देहवश लोट आई और बीच में ही सामने से पाती हुई दिखाई दी । सुकेशीको देखकर उसने लघुपर्णी विद्याके द्वारा उस अनन्तमति को शापुरके निकट भीम नाम के बनमें छोडदिया। यहांपर शिकारकेलिये आये हुए भीम नामक भिल्लों के राजाने उसको देखा और अपनी पल्ली में लेजाकर उसको फुसलाने की चेष्यामें असफल होने पर उसके साथ बलात्कार करनेका प्रयत्न किया । परन्तु उसके व्रतकी दृढताको देखकर वनदेवताने उसकी सहायता की जिससे हरकर भीमने "हे मातः! मेरे इस एक अपराधको धमाकर" यह कहकर उसकी शंखपुरके निकटवर्ती पर्वत के पास छोड़ दिया। वहां से पुष्पक नाम के एक बणिकपुत्रने उसका अपहरण किया। किन्तु उसने भी अपनी वासना पूरी करने में असमर्थता पाकर उसे अयोध्या में व्यालिका नामकी वेश्याको देदिया । च्यालिका भी जब नाना प्रकार के प्रयत्न करनेपर भी उसे अनुकूल न बना सकी तो उसने वहां के राजा सिंहको अर्पण करदी। राजा सिंह भी हर तरहसे मय प्रलोभन चाटुकार आदि के द्वारा अनन्तमति को डिगा न सका | नगर देवराने यहां उसकी सहायता की। देवताके उपद्रयों से डरकर सिंहने अनन्तमतिको घर से बाहर निकाल दिया ।
अनन्तमति विरतित्यालयमें पहुंची और वहा दुसरी प्रतिकाओंके साथ भनेक बत उपवास यम नियम करती हुई रहने लगी । विरतिचैत्यालयके पड़ोस में ही जिनेन्द्रदच सेठ का पर था। जिनेन्द्रदस अनन्तमतिका फूफा लगता था । परन्तु कोई किसी को पहचानता न था। प्रियदत्त सेठ मनन्तमति के वियोगसे खेदखिन्न था सो मन बहलानेके लिये जिनेन्द्रदत्त के यहां भाया। चिरकाल में मिलने के कारण परस्परमें जब रात्रि को बातें हो रही थीं तब प्रियदचने अपनी पुत्री के अपहरण की बात भी जिनेन्द्रदससे कही । प्रातः काल रंगवली रचना प्रादि कार्यों में अत्यन्त प्रवीण अनन्तमति को काम में मदद देनेलिये उसकी बूभाने उसे बुलाया । उसका मथ काम करके अनन्तमति अपने स्थान पर चली गई । प्रियदत्त सेठ नगरके चैत्यालयोंकी बन्दना करके जब वापिस लौटा तो रङ्गवली की रचना देखकर उसे अनन्तमति का स्मरण हो पाया भौर जिनेन्द्रदनसे कहा कि इस रचना करनेवालीको मुझे दिखाओ फलतः अनन्तमति को बुलाया गया पिताने पुत्री को देखकर अत्यन्त शोक किया, हरतरहसे घर, चलनेको समझाया और यही पर प्रत लेने को कहा और पाठ दिनकी बात खोली नहीं । अत एव अनन्तमतिने पावचीवन प्राचार्यका संकल्प किया था।