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________________ पत्रिका टीका उन्नीस बीस ११६ र करूगी अन्यथा नहीं । ललित अजन चोर "पा बडी " कहकर एक और को लेकर भारहा था कि बहारके प्रकाश से सन्देश्वश पुलिसने उसका पीछा किया । ललित द्वार को फैककर स्मशानकी तरफ भागा और जहां धरसेन विद्या सिद्ध कर रहा था वहां पहुँचा । धरसेनसे सब बात जानकर उसने कहा तू भीरु है और अपना यज्ञोपवीत दिखाकर कहा कि तु इसके साधनमें समर्थ नहीं हो सकता । तू मुझे सब विधि बता । और सव विधि मालुम करके उसने सोचा कि "जिनदत्त स्वप्न में भी किसीके अहित की बात नहीं सोच सकता । वह देशजती है महानसे भी महान् हैं। फिर पुत्रकी तरह चिरकालसे पोषित इस घरसेनका अहित क्यों करना चाहेगा " यह सब सोचकर निःशंक होकर पूर्ण उत्साहसे छीकेपर चढ़ाया और पंचनमस्कार मन्त्र पढ़कर एक ही बारमें उसने केकी सत्र १०८ लड़ीं काट डाली। उसी समय सिद्ध हुई विद्याक द्वारा सुमेरु पर जाकर जिनदसके दर्शन किये और वहां गुरुसे धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा धारण की, समस्त श्रुतका ज्ञान प्राप्त किया । और अन्तमें हिमवान् पर्वतपर केवलज्ञान तथा कैलाशके saraनसे निर्वाण प्राप्त किया । इस का सम्बन्ध में निम्न तीन श्लोक स्मरणीय हैं । — एकापि समय जिनभक्तिदुर्गतिं निवारवितुम् । पुष्यानि च पूरयितुं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥ उररीकृतनिर्वाहसाइसोचितचेतसाम् । उभौ कामदुधौ लोकी कीर्तिश्लाघ्यं जगत्त्रयम् ॥ तत्र पुत्रोऽवनिक्षिप्तः शिचितादृश्यकज्जलः । अन्तरिक्षगति आप निःशंकोंजन तस्करः || I अनन्तमति अङ्ग देशमें म्पापुरी नगरी का राजा सुवर्धन और उसकी पट्टरानीका नाम लक्ष्मीमति था। वहीं पर एक प्रियदत नामका सेट रहता था । उसकी धर्मपत्नी का नाम मात्र था इन दोनों की एक पुत्री थी जिस का नाम अनन्तमति था । यह अनन्तमती अत्यन्त सुन्दरी थी । इसकी एक सूखी थी जिसका नाम अनङ्गपति था। एक समय अष्टन्हिक पर्व के अवसर पर सेठ सहस्रकूट त्यालय के दर्शन पूजनको निकला परन्तु घरमें पुत्री को न पाकर उसने उसकी सखी से जिसका कि हाल ही में विवाह हुआ था, पूछा- अनन्तमति कहां है ? व बोली अपनी सहेलियों के साथ खेल रही है। स्वयं की गुडिया को वर और दूसरी सहेलीकी गुडिग को वधू बनाकर विवाह कर रही है। पींजरोंके तोती मेना मंगलगीत गा रहे हैं। सेठ बोला - उसको यहां बुला । ओ आज्ञा कहकर वह गई और उसको बुला लाई । पुत्री के धानेपर वृद्धावस्थापन सेठने उपहासमें कहा - गुड्डा गुड्डीका खेल खेलनेवाली बेटी ! क्या अभी से तुझे विवाह करनेकी इच्छा हुई है, अच्छा चल श्रीर्मकीर्ति प्राचार्य महाराज के समक्ष धर्मका उपदेश सुनें । सबने जाकर उपदेश सुना और अंत में सेठ सेठानीने अष्टान्हिकपर्व के लिये ब्रह्मचर्य व्रत लिया तथा पुत्री से कहा कि तू भी यह समस्त व्रतोंका शिरोमणि ब्रह्मचर्य व्रत ले | अनन्ततिने भी प्राचार्य महाराजके समय वह व्रत लिया १- सेठ और सेठनीने श्रष्टान्दिके लिये ही ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। उसी समय हंसी में उससे भी २२ V.
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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