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________________ १६८ रत्नकरण्ड श्रावकाचार अब वह नहीं मानी तो पहीने कहा- "अच्छा! यदि मैं समयपर न भाऊ तो इस पापकर्मा तपस्वी के समान मुझे भी दुर्गति प्राप्त हो" । यह सुनकर जमदग्निने उन्हें मसल डालना चाहा । परन्तु दोनों पक्षी उडकर पास के पेडपर बैठ गये। तब उन्हें देव पार्वती समझ प्रणाम करके विनयसे पूछा- मैं पापकर्मा क्यों और किस तरहसे हैं ? उत्तर में दबन कहा— तपस्विन्! शास्त्रमें लिखा है कि अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद् भवति भिचुकः ।। तथा अभी विधिवद्वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य युक्तितः । इट्टा यज्ञ यथाकालं ततः प्रब्रजितो भवेत् ॥ जमदग्निने पूछा ! अब क्या करना ? देव- पहले जाकर विवाहकर पुत्र उत्पन्न करो फिर तप करो। फलतः जमदग्निने अपने मामा की लडकी रेणुकाके साथ विवाह करके परशुरामको उत्पन्न क्रिया । दोनों देव जमदग्निको विवाह के लिये प्रवृत्त करके स्मशान में कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में ध्यानरत जिनदस नामक श्रावकको परीक्षा में प्रवृत्त हुए। रातभर घोर उपसर्ग करके भी उसको विचलित न कर सकने पर प्रातःकाल होनेपर दोनोंने जिनद तकी श्लाघा की, दिव्य उपकरण देकर पूजा की, और आकाशगामिनी विद्या दी। और कहा कि तुमको यह विद्या स्वयं सिद्धि रहेंगी। किंतु दूसरोंको विश्विपूर्वक सिद्धि हो सकेंगी। साधन विधि बताकर जिनद ससे भी निम्न कोटिके अभ्यासी किंतु सम्यग्दृष्टि राजा पद्मरथकी भी परीक्षा करके और अन्त में उसकी भी पूजा करके दोनों यथास्थान चले गये । इस तरह देवों से प्राप्त आकाशगामिनी विद्याके द्वारा जिनदत्त सेठ जब अकृत्रिम चैत्यालयों की बन्दना के लिये जाने लगा तो एक दिन घरसेन नामके पुष्पवाड - मालीके लडको इसका रहस्य जानने की इच्छा हुई और जिनदत्तके द्वारा भेद मालूम पडने पर विद्या सिद्ध करने की उत्सुकता हुई। जिनदत्त द्वारा साधनविधि मालुम पडने पर वरसेन कृष्णा चतुर्दशीको स्मशान में जाकर चटवृक्ष के नीचे तदनुकूल मंडल माडकर कन्या द्वारा काते हुए सूतके १०८ लडीका का वृक्षमें बांधकर नीचे ऊर्ध्वमुख तीक्ष्ण शस्त्र गाढकर और सकली करणसे आत्मरक्षा पूजन विधि करके विद्यासिद्ध करने के लिये तयारीमें था परन्तु ऊपर चढ़ने की हिम्मत नहीं होरहीं थी । वह यह सोचकर डर रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि विद्या सिद्ध न हो और मैं ऊपर से गिरकर और शस्त्रांसे कटकर मृत्युको प्राप्त होजाऊ । इसी अवसर पर एक दूसरी ही घटना उपस्थित होगई । - विजयपुर के महाराज अरिमंथन और उसकी महारानी सुन्दरीका ललित नामका पुत्र जिस को कि समस्त व्यसनोंमें आसक्त रहनेके कारण दायादोंके कहने से राज्य से निकाल दिया गया था और जो कि ऊपर लिखे अनुसार अदृश्याञ्जन के कारण अंजन चोरके नाम से प्रसिद्ध था अपनी प्रेयसी अजनसुन्दरी वेश्या के पास रात्रिका गया परन्तु उससे वैश्याने कहा कि कुशाग्रपुर के महाराजकी पङ्करानीका सौभाग्यरत्नाकर नामका हार मुझे लाकर यदि दो तो मैं तुमसे प्रेम
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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