________________
उश्रावकाचरी
अपने शुद्ध स्वरूप में ही वह परिणमन करता हुआ अनन्त कालतक अवस्थित रहा करता है ।
दाते- - व्याकरण में जिस तरह धातु से नाम बनते हैं उसी तरह नाम से धातु भी बनते हैं। यहां पर भी उसी नान धातु प्रक्रिया के अनुसार दर्प शब्द से दर्पणायते यह क्रिया बनाई गई है जिसका अर्थ होता है दर्पण के समान आचरण करना । इस क्रिया के प्रयोग करने का आशय दृष्टान्त पूर्वक अर्थ विशेष को स्पष्ट करने का है । दृष्टान्त के सभी धर्म दाष्टांन्त में नहीं मिला करते अन्यथा दृष्टान्त और दान्त का भेद ही नहीं रहेगा । अतएव जिस अंशको स्पष्टतया समझाने के लिये दृष्टान्त दिया जाता है उस स्टान्त को उसी अंश में घटित करना चाहिये। यहां पर दर्पण के दृष्टान्त का श्राशय यह है कि जिस तरह स्वच्छ दर्पण के सामने जो भी पदार्थ आते हैं वे सभी स्वाभाविकतया उसमें प्रतिबिम्बित हुआ करते हैं । उसी प्रकार आवरणादि दोषों से रहित पूर्ण स्वच्छ चैतन्य में स्वभाव से ही सम्पूर्ण पदार्थ-तीन लोक के भीतर पाये जाने वाले पदार्थ और उनके समस्त गुणधर्म तथा उनकी अतीत अनागत सर्भ । अवस्था निमारित हुआ करती हैं।
तात्पर्य - ऊपर नमस्कारात्मक मंगलरूप कारिकाका सामान्य अर्थ तथा पद्यगत शब्दों का आशय लिखा जा चुका है। यहां पर इस श्लोक के सम्बन्ध में कुछ और भी लिखने की इसलिये आवश्यकता है कि इसका हृद्गत तात्पर्य पाठक श्रोताको विदित हो सके
मंगल अनेक प्रकार के हुआ करते हैं-मानसिक वाचिक कायिक | वाचिक मंगल भी दो प्रकारका बताया गया है। निद्ध तथा श्रनिबद्ध । इसके सिवाय कोई जयवादरूप कोई आशीafreen कोई निर्देशस्वरूप कोई गुणस्तवनरूप तथा कोई नमस्कारात्मक मंगल हुआ करते है । ५ इनमें से यह नमस्कारात्मक निबद्ध मंगल है । इसमें स्पष्ट हीं नमः शब्दका प्रयोग किया है ! नमस्कारका उल्लेख इस बातको व्यक्त करता है कि नमस्कर्ता के हृदयम ननस्य व्यक्तिके गुणों श्रथवा उसके व्यक्तित्व के प्रति कैसा और कितना अनुराग है । प्रन्थकर्त्ता भावी तीर्थंकर श्री
J
१-९० ० कारिका न० ४० । तथा तैलीकणांप ण चालिज्जो
२- तज्जयति परंज्योतिः सभ समस्वरनन्तपर्यायः । दपंणतल व सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र । पुरुष ० १ । तथा प्रवचनसारका ज्ञानप्रपचनामा अन्तराधिकार यथा- तिक्कालपिच्चासयं सबल सभ्यत्य संमधं वित्तं । जुन जागांद जागणं अहाहिं णाणस्त्र माह ॥५२॥
३ तस्य मनःकावास्यामपि सम्भवात् । अ० २० पृ० ६ । 'मनसा वचस तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनिः । ज्ञानादीनां जिनेन्द्रस्य प्रणामस्त्रिविधो मतः । अ० ० ८-६५ टीका ।
४- धवला
५--जयवादरूप - तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र | पु० [सं० । “जय जय श्री सत्काान्तप्रभा जगतां पंत, जय जय भवानेव स्वामी भवाम्भसि सताम् ॥ इत्यादि (नि० पू०) श्रापतिर्भगवान् पुष्याद्भक्तानां कः समीहितम् । क्ष० धू० यवा - " श्रीकान्ता कुछ कुम्भ" “पुष्यासुमनसो मतानं जगतः स्याद्वादवादविषः । " यश० २-१ इत्यादि प्रमाणादर्य संसिद्धि इत्यादि । अचिह्नकम्मावयता सादादा गिरंजणा गिचा, अदुगुणा किंदांकच्चा लोयग्गणिवासिणों सिद्धा !"