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मातीका मारक चाहिये । क्योंकि लोकका अभाव ऐसा ही अर्थ यदि लिया जायगा तो लोकका जो प्रमाण बताया है उसके बाहर कुछ भी नहीं है ऐसा सर्वथा निरोधरूप ही अर्थ निष्पन्न होगा सो अर्थ ठीक नहीं है। जैसा कि आगममें बनाये गये लोक अनाकर्फ अथसे विदित होता है । लोक शब्दका अर्थ ऐसा होता है कि जो देखे जाय अथवा जहाँ पर जीवादि पदार्थ देखे जांय उसको लोक कहते हैं । अतएव जो जीवादि पदार्थोंके समूहरूप है---छहों द्रव्योंके समुदायरूप हैउसको लोक ऋहते हैं---अथवा जितने आकाश में छहाँ द्रव्य पाये जाने हैं उतने आकाश प्रदेशोंके प्रमाणको भी लॉक कहते हैं । लोक शब्द के और भी अनेक अर्थ किये हैं। परन्तु प्रकृतमें ये दो अर्थ ही मुख्य हैं । यह लोक द्रव्यांक समूहरूप होनसे स्वतः सिद्ध अकृत्रिम है और अनादि तथा अविनश्वर है।
त्रिलोकानाम्-इम लक्के मुख्यतया तीन विभाग हैं,-अधोलोक मध्यलोक और ऊय लोक । ये नीन विभाग क्षेत्र विशेषकी अपेक्षा अथरा पुण्य पापके अनुसार उत्पत्तिकं योग्य स्थानों की अपेक्षासे बताये गये है। बागममें प्राय: ये तीन ही विभाग सर्वत्र प्रसिद्ध हैं । किन्तु इनके सिवाय सात नौ या चौदव इस तरहसे भी भेदोंकी संख्याका उल्लेख मिलता है जो कि भिन्न २ अपेक्षाओंस किया गया है : लोकका प्रमाण निश्चित है जैसा कि आगे चलकर४ बताया जायगा । उसके बाहर मभी दिशागमें अनन्त आकाश रूपमें अलोक है । इस तरह लोक तथा अलोकका सामान्यतया यहां निदेशमात्र किया गया है । इसके प्रमाण आदिका विशेष वर्णन करणानुयोग के लक्षण आदिका वर्णन करनेवाले त्रिलोकसार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिमें देखना चाहिये । संचपमं यहां भी कारिका नं. ४४ की व्याख्याक समय किया जायगा। ___यद्विद्या--- विद्या शब्द के अर्थ और भी अनेक हो सकते है । परन्तु यहां उसका अर्थ ज्ञानही लेना चाहिये। मतलब यह कि यहां पर यविद्या जिनका ज्ञान ऐसा कहने से समवसरण स्थित बीतसंग भगवान के उस कंवल झानको बतानेका है जो कि पूर्णतया निराकरण है और जिसमें युगपत्-विना क्रमक ही सम्पूण पदार्थ प्रतिभासित होते हैं और जो कि आत्मा के लक्षण रूप चैतन्यका ऐसा विशुद्ध स्वरूप है जो शाश्यतिक है. अपने स्वरूपमें ही सदा विद्यमान रहता है, जिसमें न कभी न्यूनाविकता आती और न किसी तरह के विकार का ही सम्बन्ध हुआ करता है, F-'पंचारित कायाः कालश्च लोकः ५-५-२६,' यन्त्र पुण्यपापफललोपन स लोकः '५०' लोकतीति वा लोस: ___ ११ (पद्रव्यसमूही लोकः) 'लोक्यने ।त वा लीक: '१६' पस्थेन सर्व लोक्यत यः स लोकः' रावा०५-१२ । जान्छ गाधनप्रभागा लोकः ति०१० अ० १-६ । २...आणिोण होणो पगदिसरूपेण एस संजादो। जीवाजीव-समिद्धो मन्त्ररहवलोहमी लोओ, 'ति० ५० अ० :-५३३ । ५. यान्त्रीणि सप्त चतुर्दश भुवनानि' अ: चिट १-७६ ! भुवनानि निमनीयास्त्रीणि मप्त चतुर्दश । काग्भटालंकार । णाम ठवरणं इन्च खेस निगई कहाय लोओ य । भक्लाग भावलोग पज्जयलोगो य णादव्यं । अ० ध० टी ८-३७ १४–करणानुयोगका स्वरूप वर्णन करनेवाली कारिका नं० ४४ की व्याख्या में |५--विद्यारंपदं प्रयच्यामि तस्वार्थश्लोकवार्तिक १-१ प्रसिद्धं च सकलविद्यास्पदत्वं भगवतः सर्वज्ञत्वसाधनात् । ३० श्लो० मंगलाचरण ।