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________________ रलकरण्हश्रावकाचार घातिया कर्म हैं जो कि अात्माके वास्तविक अनुजीवी गुणोंका घात करने वाले हैं । इनमें भी मुख्य मोहनीय कर्म है । इस मोहनीय कर्मके निमिचसे ही संसार और उसके कारण भूत कर्मोंकी श्रृंखला बनी हुई है या चल रही हैं। इसके निर्मल हो जाने पर सभी कर्माकी संतति विश्वस्त हो जाती है—कोई भी कर्म बंधको प्राप्त नहीं हुआ करना और न किसी भी कर्मका ऐसे रूपमें उदय ही हुआ करता है जो कि नवीन बंधकर कारण हो सके । यही कारण है कि इसको सिद्ध करना—उसको निर्मूल करके उस पर विजय प्राप्त कर लेना मोक्ष मार्गके साधनमें सबसे अधिक दुष्कर कार्य माना गया है १ । इस मोहनीयके नष्ट हो जाने पर इसके समान काम करनेवाले शेष वातिया कर्मों का विनाश भी सहज ही हो जाया करता है.--वे भी निर्मल नष्ट हो जाते हैं। सथा इनके साथ ही अघातिया कर्मोंकी भी कुछ प्रकृतियां नष्ट हो जाया करती हैं । फलतः मूलभूत पाप कर्मोंके नष्ट हो जानेसे इनको निर्ध तकलिलात्मा कहा गया है। दूसरी बात यह है कि जो पाप कर्म अभी सत्ता में बने हुए हैं वे मोहके उदयका निमित्त न रहनेसे अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हुआ करते ३ वे था तो विना फल दिये ही निर्जीर्ण हो जाते हैं अथवा अन्य सजातीय पुण्यकर्म प्रकृतिक रूपमें संक्रमण कर लिया करते हैं ।४ जैसंकि श्रमाता वेदनीय साता वेदनीयके रूप में, नीचगोत्र उच्चगोत्र के रूपमें, अयशस्कीर्ति यशस्कार्तिके रूपमें, इत्यादि । अत एवं सर्वथा असमर्थ सत् रूप उन पापकर्मीको कोई भी महच या मुख्यता प्राप्त नहीं है। जिनको मुख्यता प्राप्त है उनको उन्होंने नष्ट करके ही सर्वत्रता एवं हितोपदेशकता प्राप्त की है। ___ तीसरी बात यह है कि यदि ऐसा न माना जायगा तो न तत्यव्यवस्था ही इन मवेगी और न कार्यकारणभावके भंगका प्रसंग आये बिना रह सकेगा । इस विषयमें भागे चलकर और भी लिखना है अतएव यहां विशेष नहीं लिखा जाता। अनावश्यक विषयको द्विरुक्ति श्रादिके द्वारा वसाना उचित नहीं है। अस्तु । इस विशेषणके द्वारा भगवानकी वीतरागता या निर्दोषताको स्पष्ट किया है जो कि सर्वत्रता का और उनके शासनमें सर्वाधिक प्रामाणिकताका भी कारण है। सालोकानां त्रिलोकानां विद्या दर्पणायते । सालोक-~-अलोकसहितको कहते हैं सालोक यह "त्रिलोक" का विशेषण है। अलोक शब्द क्योंकि निषेधपरक है अतएव उसके दो तरहके अर्थ हो सकते हैं,- पर्युदास और प्रसज्य । जहां किसी अन्य पदार्थके रूप में निषेधका आशय लिया जाय वहां पर्युदास और जहां केवल निषेधका ही अभिप्राय हो वहां प्रसज्य अर्थ माना जाता है। यहां पर अलोकका अर्थ पयुदास करना -अक्खाण रमपी "कम्माण मोहणी" तह वयाण वम्भं च ।गुत्तीणं मणगुत्ती चउरो दुकोण सिज्मति । २-मोहलयाजानदर्शनावरणान्तरायक्षयान्य केवलम् । मोक्षशास्त्र १६-२४३ मोहस्तं मलेण पादे जीवम -सावसरूपेण परिणमदि आदि । ५- प्रयु दासा सरप्राही प्रसज्यस्तु निवेधकत् ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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