SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चंद्रिका टीका प्रथम श्लोक ze दूसरा अर्थ चौवीस तीर्थकर भी होता है जैसा कि श्री प्रभाचन्द्राचार्यादि की की गई निरुक्ति से स्पष्ट होता है । तीसरा अर्थ श्री — अन्तरंग वहिरंग विभूति से युक्त वर्धमान भगवान अर्थात् समवसरण स्थित अन्तिम तीर्थकर ऐसा भी हो सकता है। तीनों ही अर्थ निर्वाध हैं। फिर भी मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताको अन्तिम अर्थही मुख्यतया यहां अपेक्षित रहा है। क्योंकि इस समय उनका ही शासन प्रवर्तमान है जिसको कि दृष्टि रखकर यहां ग्रन्थकारने श्रावकाचारका दर्शन किया है 1 ! निघू तक लिलात्मने - निकालकर दूर कर दिये है कलिल आत्मासे जिसने । कलिल शब्दका अर्थ होता है-- कलि-कलहं लाति दत्ते इति कलिलम् | जो बलह झगड़ा या विरोध का कारण है उसको कहते हैं कलिल । यहाँ इस शब्द से आशय उन पाप कमोंसे है जो कि संसारमें शांति भंग करनेमें मूल कारण हैं, उन पाप कमोंको (जो कि प्रवाहरूपसे जीवात्माके साथ अनादिकालर्स लगे आ रहे हैं, अपनी आत्मासे सर्वथा जिन्होंने पृथ कर दिया है, जो उन पापोंसे रहित हो जानेके कारण स्नातक अवस्थाको प्राप्त हो चुके हे उनको कहते हैं निर्व कलात्मा । यों तो पाप कर्मोंकी संख्या १०० है, घाटिया कमकी ४७, नामकर्मको ५० और साताबेनीयता तक आयु | किन्तु प्रकृत स्नातक अवस्था वाले सर्वज्ञ जीवन्मुक्त हितोपदेशी तीर्थंकर भगवान्के इनमें से ६३ का अभाव हो जाया करता है। घालिया कमोंकी ४७ तथा श्रचातिककी १६, जिसमें कि ३ श्रायु भी सम्मिलित हैं, इसतरह कुल ६३ प्रकृतियोंका क्षय करके शुद्ध चैतन्यको सिद्ध करने वाले परमेष्ठीको मह वस्था प्राप्त हुई मानी गई है। इन ६३ प्रकृतियोंमें प्रायः पाप प्रकृतियां हीं हैं - यही कारण है कि इनको अपनी आत्मासे पृथक वर देनेवाला निर्घावलिलात्मा कहा गया है। ऊपर पापकों की संख्या १०० कही है और यहां कुल ६३ का ही चय कहा गया है जिनमें कि पाप कर्मोंकी संख्या ५८ ही है। क्योंकि ६३ में युस्त्रिकात और उद्योत ये पांच प्रकृतियां रा रूप हैं इससे यह स्पष्ट हैं कि अभी उनके ४२ पाप कर्मोंका सच बना हुआ है। फिर भी इनकी जो विधुतकलिलात्मा पाएका विधातक कहा गया है उसके कई कारण है— प्रथम तो पाप कर मुख्य के अनुसार जन्म के १५ वें दिन माता रिल द्वारा नाम निर्देश होना चाहिये | किन्तु अन्य तीर्थकरों विषय में इस तरह नामकरण का वर्णन देखने में नहीं आया. संभव हैं इन्द्र द्वारा रक्खे गये नाम को ही माता पिता द्वारा स्वीकृत कर लिया गया हो और नामकरण क्रिया के समय १२ वें दिन उसी नामकी विधि पूर्व घोषणा कर दी गयी हा १- इस शब्द में चार शब्द हैं— श्री, अब श्रद्ध, मान । श्री-विभूतिअब उपसर्ग है, और ऋद्ध बढा हुआ, मान- केवलज्ञान । अर्थात् समवशरण विभूतियुक्त है सर्वोत्कृष्ट अवस्थ तक पहुंचा हुआ प्रमाणभूत केवलज्ञान जिनका | २ध्यान रहे पुण्य और पापको संख्या बताने में स्पर्शादिक २० कर्मप्रकृतियोंको दोनों ही तरफ गिना गया है । क्योंकि इनका फज़ दृष्ट अनिष्ट दोनों ही प्रकारका माना गया है ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy