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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार और क्यों ? इसके उत्तर में ही नमस्य भगवान्की तीन पदों द्वारा विशिष्टता - नमस्कारके योग्य असाधारण गुणवत्ता इस पद्यमें प्रकट की गई है। पहले पदके द्वारा हितोपदेशकता, दूसरेके द्वारा वीतरागता और तीसरे अथवा उत्तरार्धके द्वारा सर्वज्ञताको दिखाया गया है। जिससे यह अर्थ निकलता है कि जो हितोपदेशी है वह नमस्य है। किन्तु हितोपदेशी वास्तव में वही माना जा सकता है जो वीतराग एवं सर्वज्ञ हैं । लोक में भी जो रागद्वेष अर्थात् पक्षपात से ग्रस्त हैं तथा प्रकृत विषयमें अजानकार है उसका उपदेश या निर्णय हितरूप एवं प्रमाणरूप नहीं माना जाता | नमस्कारसे प्रयोजन यहां विजय हैं! कि श्रागममें पांच प्रकार के विनयका जो उल्लेख मिलता है उनमें से मोक्षाश्रय विनयक शिवाय शेष चार प्रकारके विनयका यहां सम्बन्ध घटित नहीं होता ।२ श्रीवर्धमान - इस शब्द के दो अर्थ प्रसिद्ध हैं, परन्तु तीन अर्थ भी किये जा सकते हैं। प्रथम तो श्रीवर्धमान यह वर्तमान २४ तीर्थकरोंमेंस अन्तिम तीर्थंकर की उनके माता पिता द्वारा रक्खी गई अन्वर्थ संज्ञा है, दूसरा इसका अर्थ २४ तीर्थंकर होता है। तीसरा अर्थ समवसरण विभूतियुक्त अन्तिम तीर्थकर भी हो सकता है I वर्तमान हुंडावसर्पिणीमें होनेवाले तीर्थकरों मेंसे चोबीसवें तीर्थंकर भगवान् पांच नामसे प्रसिद्ध हैं---बीर महावीर अतिवीर सन्मति और श्री वर्धमान । पांचो ही नामके भिन्न २ कारण हैं और वे भित्र २ व्यक्तियोंके द्वारा रक्खे गये हैं३ । इनमेंसे श्रीवर्धमान यह नाम उनके माता पिता द्वारा जन्मसे दशमें दिन रक्खो गया था । यद्यपि इस नामकरण में कुछ अर्थ की भी अपेक्षा रक्खी गई है। यहां पर ग्रन्थकति इंद्र रुद्र देव और चारण मुनिके रक्खे हुए नामका उल्लेख न करके माता पिता के रक्खे हुए नामका ही उच्चारण किया है। यद्यपि आचार्योंने अनेक स्थानों पर 'श्रीवर्धमान' शब्दका प्रयोग न करके केवल "वर्धमान" शब्द का ही प्रयोग किया हैं सो संभव है कि यह केवल पूर्ण नामके स्थान पर उसके एक देशका प्रयोग करनेकी पद्धति के अनुसार ही किया गया हो । जैसे कि बलभद्रको बल या भद्रं शब्दसे ही लिखना अथवा सत्यभामाको सत्या या केवल भामा शब्दके द्वारा ही बोलना । किन्तु वास्तवर्म भगवानका पूर नाम 'श्री वर्धमान' ही रक्खा गग । ११ आत्मस्थितेचं हेतु विचारणीयम् न तु जात्यन्तर संक्रमेण । दुवर्णनिर्वविधौ बुधानां सुवर्णवर्णस्य मुधानुबंध: पेषु ये दोषमनीषया दोषान् गुणीकर्त्त मधेशते वा । श्रोतु कवीन' वचनं न हो, सरस्वतीद्रोहिषु फोड धिकारः ॥ १-३७,३८ । (दशस्तिलक) । २- लोकानुवृत्तिकामार्थमयनिःश्रेयसाश्रयः । विनयः पंचधावश्यकार्यों ऽ त्यो निर्जरार्थिभिः ।। तथा लोकानुवर्तनाहेतुरित्यादि विनयः पंचमो यस्तु तस्यैषा स्यात्प्ररूपणा || इत्यन्तम् ।1 (अ० ० ८-८) ३- इसके लिये देखो श्री अशग कविकृत महावीर चरित्र अपरनाम वर्धमान चरित्र के सर्ग १७ के क नं० ८३ ६१,३२,६८, १२६ । ४ - जैमा कि इसी वर्धमान चरित्र के सर्ग १७ के श्लोक नं० ६.१ " से free होता है। किंतु आगम में गर्भाधानादि ५३ क्रियाओका वर्णन दिया है उनमें जन्म से १२ में दिन अथवा उसके बाद नामकरण की विधी बताई है देखो आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक ० ५- तीर्थकर भगवानका जन्माभिषेकके अनन्तर इन्द्रद्वारा नामनिवेश किया जाता है। परन्तु आगंम पद्धति
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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