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________________ चंद्रिका टीका प्रथम श्लोक में इटदेवका स्मरण करना श्राचापों तथा शिष्ट पुरुषाको अभीष्ट है । इस मर्यादा पालन रना महान् तार्किक भाचार्य भगवान् समन्तभद्र स्वामीन अपने इस श्रावकाचारके प्रारम्भमें मी अजित सममा है। क्योंकि ये न कंबल तथाकथित परीक्षाप्रधानी ही थे अपितु परीवाप्रथाविवासे भी पूर्व मानाप्रधानी और परम्परीण मर्यादाक पालन करने वाले भी थे । यही कारण है कि अपने से पूर्ववती प्राचार्योकी मंगलाचरण १ करनेकी भाम्नायका उन्होंने भी यथावत् अनुसरण किया है। ४। मंगलकामना--मंगलकी अभिलापाको कहते हैं। मंगल शब्दके दो अर्थ प्रसिद्ध हैपापका नाश और पुण्यकी प्राप्ति । प्रारब्ध शुभ कार्योके पूर्ण होनेमें अनेक तरहसे विनों के आनेकी सम्भावना रहा करता है । विघ्नोंका कारण अन्तराय आदि पाप काँका उदय तथा साता आदि पुण्य काँका अनुदय अथवा मंदोदय है। वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी परमात्मा प्राप्त परमेष्ठीके पवित्र गुणोंके स्मरणसे अन्तराय आदि पाप कर्मोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है और सद्वेषादि पुण्य कर्मो रसमें प्रकर्ष हुआ करता है । फलतः विघ्न पानेमें अन्तरंग कारण अन्तराप कर्मक निर्णय हो जानेसे अभिमत कार्यकी सिद्धि भवाथित बन जाती है। प्रताप भास्तिक एगं तचन्न ग्रन्थकर्ता अपने ग्रन्थकी आदिमें पवित्रगुणोंके समुद्र अभीष्ट देवका स्तवन किया करते हैं । समन्तभद्र स्त्रामीन भी इसीलिये इस श्रावकाचारको रचनाके प्रारम्भमें अपने इष्ट गुणों के स्थानभूत श्रीवर्धमान भगवानको नमस्कार किया है। मंगल करनेका फल अनेक तरहके अभ्युदयों की सिद्धि आदि भी बताया है । हमी प्रन्यान्तरोंके कथनानुसार विद्वानोंको यहां पर भी यथायोग्य पटित कर लेना चाहिये। ऐसा भी कहा है कि "मंगल निमित्त हेतु प्रमाण अन्यका नाम और शास्त्र काँका माम इस तरह छह बातोंका अन्यकी श्रादिमें वर्णन करना चाहिये । ७ इनमेंसे मंगलका उन्लेखशी स्पष्ट ही है, अन्य विषय श्रनुमान अथवा तर्क द्वारा समझाने चाहिये। जिसके कि लिये अल्पके अन्तिम दो पध तथा अन्यकी पद्य संख्या श्रादिका आधार पर्याप्त है।। ___ शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ---नम: यह अध्ययपद है जिसका अर्थ होता । नमस्कार। अर्थात् अन्यकर्ता कहते हैं कि मेरा नमस्कार हो । इस पर से प्रश्न उठ सकता है कि किसकी 2-घट खण्डागमः प्रारम्भ में "गमो अरिहन्ताणं" आदि..... मोदराम्सकी आदि में "मोक्षमार्नस्न नेतारमण तथा समयसार प्रवचनसार के "बंदिस्तु सम्वासद्धे, एस सुरासुर" भादि मंगल पर इसके प्रमाण है। २-"म" पापं गालयति-विनाशयति इति । तथा "मंग"-मुर्ग पुण्यं वा जाति ददाति इति । हेली ममगार धर्मामून अ शोक ११ की टीका और तद्गत दोनों पर। ३-'यान्सि बटुवित्रानि नमधुना भवत्' क्षत्रचूडामणी (वादीभसिंह) ४-नेष्ट' विइन्तु -शुभभावमपरसप्रकर्षः प्रमुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुराणान्तुत्वादिािय भवहदादेः॥ ५-नास्तिकत्वपरिहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । श्रेयोऽवामिश्च निर्वित्र शास्त्रावावालसंस्तवात् ।। ६.अबला आदि-मंगलहेतुनिमितप्रमापानामानि शास्त्रकर्टश्च । व्याकृत्य पपि पश्चातम्यांचा माचार्यः १०० १४६-- १५० येन स्वयं मावि तथा मुख्याल कादि।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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