SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रस्नकरण्डश्रावकाचार AhimnAAJAL - - - अन्तरात्मा है । सदृश शब्दकी पुनरुक्ति के कारण लाटानुप्रास नामका शब्दालंकार यहांपर है। · विदः-क्रियापदका अर्थ होता हैं जानते है-मानते हैं। भस्मगूढाकारान्तरौजसम्---इसका समास इसतरह करना चाहिये । भस्मना गृहः माच्छाविसः सचासी अरश्न । अन्तः जासम् मान्तरं, भस्मगूढांगारवत् प्रान्तरं श्रोषः यस्य | अर्थात् भस्मसे ढके हुए अंगारके समान है अंतरंगमें ओज जिसके। . प्रकृत पद्य में लाटानुप्रास नामके शब्दालंकारका उल्लेख ऊपर किया गया है । अर्थालंकारों में यहां अनेक अलंकारोंका सांकर्ष पाया जाता है-रूपक; व्यतिरेक, समुच्चा और प्रस्तुत प्रशंसा। दो पदार्थों में साधयके कारण जहां अभेद दिखाया जाय वहां रूपक अलंकार, समानता रखनेवाले दो पदार्थों में से जहां किसी धर्म की अपेना एकको अधिक बता दिया जाय वहां पतिरेक, एक ही जगहपर जहां उत्कृष्ट और अपकृष्ट पदार्थों का संग्रह पाया जाय वहां समुच्चय और जहां भप्रकृत पदार्थकी भी प्रशंसा की जाय वहां अग्रस्तुत प्रशंसा नामका अलंकार मानाजाता है। ये चारों ही लवण यहां घटित होते हैं। अतएव यहां संकर अलंकार- अलंकारोंका सांक हो गया है। " नात्सर्य-जीवका व्यवहार दो तरहसे हुआ करता है । एक आध्यात्मिक दूसरा आधिभौतिक । मामाकी गुणों की तरफ जब दृष्टि रखकर विचार और व्यवहार किया जाता है सर माध्यात्मिक व्यवहार कहा जाता है । और जब जीवसे सम्बद्ध या असम्बद्ध अन्य पदार्थ-पुद्गल द्रव्य की तरफ मुख्य दृष्टि रखकर विचार किया जाता है या व्यवहार होता है तब उसको आधिभौतिक व्यवहार करते हैं । यहॉपर १ शुद्ध निश्चयनय१ २ अशुद्ध निश्चयनय२ ३ अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय: ५ उपचरित मभृत व्यवहार नय ६ उपचारित असद्भुत व्यवहार नय६ इन छह-नयों के अनुसार होनेवाले व्यवहारको भी मागम के अनुसार घाटत कर लेना चाहिये । क्योंकि आचार्य शरीराश्रित व्यवहार की अपेक्षा आत्माश्रित शुद्ध सम्यग्दर्शन गुणकी ही यहां मुख्यतया महत्ता बता रहे है। किंतु अन्य नयाश्रित व्यवहारका निपेष नहीं कर रहे है। किंतु गौणतया उसकी भी प्रयाजनाभूतताको प्रकारांतरसे १-रूपकं यत्र साधादर्थयोभदा भवेत् । ४-६६ । केनचिद् यत्र धर्मेण हयाः संसिल साम्ययोः। भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ॥ ४-८४ ॥ एकत्र यंत्र वस्तुनामनेकेषां निबन्धनम् । अत्युत्कृष्टापमाना ते बदन्ति समुषयम् ।।४-३प्रशंसा फियते यत्राप्रस्तुतस्यापि वस्तुनः । अप्रस्तुतप्रशंसातामा कुतधियो यथा ॥४-१३४ ॥ वाग्भटा. 1-६ इन छहों के उदाहरण स्व०प० द्यानतराय जीके "धर्मविलास" के दराबोलपचीसिकार पय नं० २२ से समझलेना चाहिये । यथा-असतकथन उपचार जीवका जनधन जानो, असत बिना उपचार कम्य भासम को मानो । साँच कथन उपचार हंसको राग विगारो, साम बिना उपचार भान तनो पारोनिहरे जात नर मेदने राग स्वरूपी भावमा, आदेष शुख निहचै समझि, मानरूप परमात्मा ARER
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy