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________________ चन्द्रिका टीका अठाईसवां श्लोक २४० साताका, जिसका कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, निराकरण करना नहीं है प्रकृत कारिकाका प्रयोजन प्रधानभूत अन्तरंग सम्यग्दर्शन गुण की महत्ताका रूमापन करनामात्र है। साथ ही यह भी बताना है कि आत्मसिद्धिके लिये अरिहत देवने मुमुक्षुओंकी इस आध्या त्मिक निज अंतरंग सम्पत्तिको प्रधान माना है। जो कि सर्वथा उचित संगत और सैद्धान्तिक है। तथा युक्तियुक्त अनुभव सिद्ध और आगमप्रसिद्ध हैं ! शब्दका सामान्य विशेषार्थ सम्यग्दर्शनसम्पन—- सम्यग्दर्शन शब्दका अर्थ और लक्षण यथावसर लिखा जा चुका है। सम्पत्र शब्द सम्पूर्वक पद धातु के प्रत्यय होकर निध्पण हुआ है। मतलब यह है कि जो अच्छी तरह पूर्ण हो चुका है, यहां यह पद मातंग देहजमका विशेषण हैं। यद्यपि सम्यग्दर्शनके सम्बम- परिपूर्ण होनेमें पांच अवस्थाएं क्रमसे हुआ करती हैं। उद्योत, उद्यन, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण । फिर भी यहां पर केवल सामान्यतया मल दोषरहित दृढ श्रद्धा को प्रयोजन है। मतलब इतना ही है कि जो सम्यग्दर्शन रूप सम्पत्तिको सिद्ध कर चुका है और उसका भंग न होनेदेन के लिये रह है । यदि यह अव्ययपद है। इसका सम्बन्ध भी मातंगदेहजम् के साथ हीं है । मातंगदेहजम्मात शरीरसे जो उत्पन्न हुआ हो । यहां पर ध्यान देना चाहिये कि जो मानके शरीर से उत्पन्न हुया हो वह भी मातंग ही हैं। वह भी इसी शब्दसे कहा जाता है । अव "देव"ar साथमें और न कहकर यदि केवल " मातंग " इतना ही कह दिया जाता तब भी काम चल गया था। ऐसा होते हुए भी आचार्यने जो यह शब्द रक्खा वह बिना जाने अथवा अनावश्यक नहीं रक्खा है। किन्तु उनको चतुर्थ चरण में दिये गये व्यक्ति के या काकी या प्रतीति करानेकलिये ऐसा लिखना उचित और आवश्यक था। जिससे शरीराश्रित व्यवहार और आत्माश्रित धर्म सम्पत्तिकी प्रतीति भार रूपमें हो सके। यह मालुम हो सके कि यद्यपि व्यवहार शरीराश्रित है अतएव वह मातग शरीरसे उत्पन्न होने के कारण लोक में जत्थाहीन माना जाता है किन्तु उसका आत्मा सम्यग्दर्शन के अन्तस्तेजसे प्रकाशमान होने के कारण देव है। देवा देवम्-- देवशद करते है। देवगति और देवयुका जिनके उदय पाया जाय ऐसे सुर असुर, पूज्य पुरुष तदेव या गवाधर देव प्रकाश स्वरूप भास्मा, इन्द्रिय, परमात्मा आदि । यहाँपर पहले देव शब्दका जी कि क पद है अर्थ अरिहंत परमात्मा या गावर देव हैं। और दूसरे कर्मस्थानपर प्रयुक्त देव शब्दका अर्थ प्रकाशमान त्मा या १-अन० ६० १-६९ । २---मासंग शब्दका धर्म जो चारडाल किया जाता है वह हमारी समझसे ठीक नहीं है। मातंग और चारखालमा बात हैं।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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