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________________ १२६ रस्नकरण्डश्रावकाचार न शरीर से उनका सम्पर्क ही करना चाहिये । मिध्यात्त्र और मिथ्यादृष्टि योंकी सरहसेही मिध्या शान और मिथ्या ज्ञानियोंके विषयमें एवं मिथ्या चारित्र और उसका पालन करनेवालोंके विपर में समझना चाहिये। हेत्वाभास मन अपेनाओं, और मल रिद उदारों से प्रायः जगत मोहित कुमा करता है । संप्रति कलिकाल है । और लोग स्वभावसेही सकषाय हैं फिर यदि प्रयुक्त हेतु दृष्टांत मादिके द्वारा रोचक पद्धति से वर्णन करनेवालों का समागम हो जाए तो साधारण मनुष्यों का मन मृति एवं विषाक्त क्यों नहीं हो सकता ? अवश्यही हो जा सकता है । अतएव मिथ्याज्ञानियों की संगतिसे अपनी श्रद्धा बुद्धि को बचाकर रखनाही उचित एवं श्रेयस्कर है।। इसी प्रकार जहाँपर वास्तबमें हिंसा अहिंसा का और उसके फलस्वरूप दुख सुख के स्वरूप का, यद्वा मूल तच जीव अजीव भाश्रव वन्ध संघर निर्जरा मोक्षकासी परिमान श्रद्धान नहीं जो कि विवेक से भी सर्वमा परे हैं ऐसे सभी मिथ्या तप प्रत आचरसों और उसके प्रवर्तक मिथ्याचारों से विवेकी सम्यग्दृष्टि को अवश्यही बचकर रहना चाहिये । ऐसा रहनेपर ही उसका सम्यक्त्व अमूह माना जा सकता है और रह सकता है। इस तरह इन चार कारिकाओं के द्वारा निवृत्ति रूपमें बताये गये सम्यग्दर्शनके चार अंगोंका वर्णन समास होता है। क्योंकि शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव अनायतनसंवा नामस पागम में कहे गये सम्यग्दर्शन के अतीचार रूप दोर्पोका और उनके निमित्त से होनेवाले मलिनता एवं अंग भंगांका परिहार किया गया है। इनको गुण शन्दसे इसीलिये कहा जाता है कि ये दोपोंके अभावरूप हैं । जिसतरह उष्णताके अमावको शांत और अन्धकार के अभाव को प्रकाश कहा जा सकता है उसी तरह अंशतः भंगरूप मतीचारों या दोषों के प्रभाव को गुण कहा जा सकता है । सम्यग्दर्शनके २५ मलदोषोंमें इनके अभाव को अर्थात् शंका कांक्षा आदिको दोष गिनाया है। फलतः इन दोषों की निवृत्ति सम्यग्दर्शन के गुण हैं। इसके सिवाय एक बात और है; यह यह कि आगम में सम्यग्दर्शन के चिन्हरूप प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिस्य इसतरह भार गुण बताये हैं। जिनको कि देखकर सम्ग्द र्शन का अनुमान किया जा सकता है; ___ क्योंकि सम्यग्दर्शनके होनेपर ये गुण अवश्य होते हैं । निःशंकितादिक के माथ इनका संबंध १-इस विषयमें निम्नलिखित पद्योंकी उक्तियां मानमें देने योग्य है। कुहेतुनयदृष्टांतगरलोद्गारदारुणैः । आचार्यव्य-जनैः संग भुजंगर्जातु न ब्रजेत् (अन०२-६८) कालः काला कलुपाशयां चा । श्रीतुःप्रवक्तुर्वचनानयो वा त्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः । (युक्त्यनुशासन) दृष्टान्ताः सन्त्यसंख्येयाः मतिस्तदशवनिनो । कि न कुयु मही धूर्ताः विवेकहिता ममाम् || यशस्तिलक । अथवा-रागउदै जग अन्ध भयो सहजे सर लोगन लाज गमाई | सीख विना सर सौखत है विषयनिके सेवन की चतुराई । वापर और रचे रसकाव्य कहा कहिये निनकी निठुराई । अन्य सामा नको आखियानमें झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥ जैनशतक . पं० भूधरदासजी २-इसके लिए देखो अनगार धर्मामृत भ०२ श्लोक ५२-५३ ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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